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ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया क्यों किया बैन? क्या भारत में इसकी जरूरत?

Bharat Ek Soch: ऑस्ट्रेलियाई संसद ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर बैन का कानून तो बना दिया। लेकिन, इसे लागू कैसे कराया जाएगा ?
09:12 AM Dec 01, 2024 IST | Anurradha Prasad
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Bharat Ek Soch: दिल्ली से करीब दस हजार किलोमीटर दूर ऑस्ट्रेलिया की संसद में एक बिल पास हुआ,जिसके मुताबिक, 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन कर दिया गया है। नियम टूटने पर सोशल मीडिया कंपनियों पर मोटा जुर्माना लगाने का प्रावधान किया गया है । भारतीय रुपये में देखा जाए तो फाइन की रकम 2 अरब 70 करोड़ रुपये तक हो सकती है ।

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भले ही हमारे देश में इस ख़बर में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई गई, इसे एक सामान्य विदेशी खबर की तरह देखा गया। लेकिन, इस खबर से निकलते संदेश हर घर से जुड़े हैं। हमारे देश में ज्यादातर माता-पिता की आम शिकायत होती है कि उनके बच्चे मोबाइल फोन में हमेशा घुसे रहते हैं यानी बच्चों के लिए मोबाइल एक नशा की तरह बन चुका है।

ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन क्यों किया?

मोबाइल एडिक्ट बच्चे अपना अधिकतर समय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिताते हैं । वर्चुअल वर्ल्ड में गुरु, गाइड, दोस्त-दुश्मन सब तलाश रही है। स्कूली बच्चों का भी अधिकतर समय स्मार्टफोन या टेबलेट के स्क्रीन पर गुजरता है। बच्चों पर मोबाइल एडिक्शन और सोशल मीडिया के साइड इफेक्ट को सबसे गंभीरता से ऑस्ट्रेलिया ने महसूस किया और एक सख्त कानून बना दिया। ऐसे में आइए समझने की कोशिश करते हैं कि ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन क्यों किया? वहां की सरकार इस कानून को कैसे सख्ती से लागू कराएगी? क्या भारत में भी बच्चों को सोशल मीडिया के तिलिस्म लोक से बचाने के लिए ऑस्ट्रेलिया जैसे कानून की जरूरत है? दुनिया के दूसरे देशों में सोशल मीडिया एडिक्शन से बच्चों को बचाने के लिए किस तरह की कोशिशें चल रही हैं? सोशल मीडिया का बच्चों की मानसिक और शारीरिक सेहत पर किस तरह असर पड़ रहा है और इसे रोकने में कहां दिक्कतें आ रही है?

ऑस्ट्रेलियाई सीनेट में बिल के पक्ष में 34 तो विरोध में 19 पड़े वोट

ऑस्ट्रेलियाई संसद ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर रोक लगाने वाला कानून पास कर दिया। वहां की अपर हाउस यानी सीनेट में बिल के पक्ष में 34 तो विरोध में 19 वोट पड़े। वहीं, लोअर हाउस यानी प्रतिनिधि सभा में बिल के पक्ष में 102,विरोध में 13 वोट पड़े। ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने कहा कि इस कानून से उन माता-पिता या अभिभावकों को मदद मिलेगी, जो अपने बच्चों पर सोशल मीडिया से होने वाले नुकसान को लेकर चिंतित हैं।

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लिबरल पार्टी के ज्यादातर सदस्यों ने भी विधेयक का समर्थन किया

ऑस्ट्रेलियाई समाज में बच्चों पर सोशल मीडिया का नकारात्मक प्रभाव कितना बड़ा मुद्दा है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी यानी लिबरल पार्टी के ज्यादातर सदस्यों ने भी विधेयक का समर्थन किया। लिबरल सीनेटर मारिया कोवासिन ने कहा कि हमने रेत पर एक रेखा खींच दी है। बड़ी ताकतवर टेक कंपनियां अब ऑस्ट्रेलिया में अनियंत्रित नहीं रह सकती हैं। लेकिन, अभी भी एक बड़ा सवाल मुंह बाए खड़ा है कि ऑस्ट्रेलियाई संसद ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर बैन का कानून तो बना दिया। लेकिन, इसे लागू कैसे कराया जाएगा ?

कानून बच्चों को सोशल मीडिया के फायदों से दूर कर देगा

कुछ टेक एक्सपर्ट्स की दलील है कि ऑस्ट्रेलिया ने हाल में जिस कानून को बनाया है वो कानून बच्चों को सोशल मीडिया के फायदों से दूर कर देगा और उन्हें डार्क वेब की ओर ले जा सकता है। कुछ का ये भी मानना है कि आज की तारीख में किसी भी खास वर्ग के लिए सोशल मीडिया पर बैन असंभव जैसा है, कोई-न-कोई तोड़ बच्चे निकाल लेंगे। आज की तारीख में ज्यादातर Big Tech Giants अमेरिकी हैं, ऐसे में बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन वाले कानून से ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के रिश्ते प्रभावित हो सकते हैं।

मीडिया आउटलेट्स को रॉयल्टी देने के लिए मजबूर किया

ऑस्ट्रेलिया पहला देश है जिसने इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्मों को कंटेंट साझा करने के लिए मीडिया आउटलेट्स को रॉयल्टी देने के लिए मजबूर किया। ब्रिटिश मीडिया के मुताबिक ब्रिटेन में भी भीतरखाने ऑस्ट्रेलिया जैसा ही सख्त कानून बनाने की तैयारी चल रही है जिससे बच्चों को सोशल मीडिया के खतरनाक प्रभावों से बचाया जा सके। फ्रांस के स्कूलों में अभी 15 साल तक की उम्र के बच्चों के मोबाइल फोन इस्तेमाल पर रोक का ट्रायल कर रहा है। कुछ इसी तरह अमेरिका में सोशल मीडिया के मोहपाश से बच्चों को बचाने के लिए कानूनी फिल्टर लगाने की कोशिश हुई । लेकिन,उसका खास असर नहीं दिखा । माना जा रहा है कि बच्चों का ध्यान भटकाने में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बड़ी भूमिका निभा रहे हैं ।

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सोशल मीडिया लड़ाकू स्वभाव वाले बच्चों के लिए एक हथियार की तरह

दुनिया के ज्यादातर संजीदा किस्म के लोगों की सोच है कि सोशल मीडिया लड़ाकू स्वभाव वाले बच्चों के लिए एक हथियार की तरह है। वहीं,साथियों और सहयोगियों पर दबाव बनाने का मंच दिखावटी प्रतिस्पर्धा के जरिए टेंशन पैदा करने का टूल तो घोटालेबाजों और ऑनलाइन शिकारियों के लिए जाल की तरह है। जिसमें कोई अपना कीमती समय बर्बाद कर रहा है। कोई अपनी ऊर्जा, कोई अपनी शांति खो रहा है तो कोई अपनी सेहत दांव पर लगा रहा है ।

बच्चों पर इंटरनेट की बोली और तौर-तरीके हावी होते जा रहे हैं

कोरोना के दौर में बच्चों को पढ़ाई के लिए मोबाइल, टैबलेट या लैपटॉप पकड़ना पड़ा वक्त के साथ कोरोना तो खत्म हो गया, लेकिन बच्चों का स्क्रीन से रिश्ता टूटने की जगह और मजबूत होता गया। बच्चे अपना मनोरंजन 6 इंच के स्मार्टफोन में खोजने लगे डिजिटल गैजेट ही बच्चों का गुरु, गाइड और दोस्त सब बन चुका है। बच्चों के व्यवहार पर उनके माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी की बोली या संस्कृति से अधिक इंटरनेट की बोली और तौर-तरीका हावी होता जा रहा है। बच्चे ये नहीं समझ पा रहे है कि उन्हें किसके सामने, क्या बोलना है ? इंटरनेट से बच्चों को जानकारियां तो मिल रही है, लेकिन ज्ञान नहीं। इंटरनेट संस्कृति की वजह से बच्चों में सामाजिक अनुशासन और सहनशीलता में भी दिनों-दिन गिरावट आ रही है। अधिकतर बच्चे जिंदगी की चुनौतियों से जूझने की जगह वर्चुअल वर्ल्ड में दिख रही तस्वीर और वीडियो जैसी लाइफ -स्टाइल की ख्वाहिश लिए नई बीमारियों के भंवर जाल में फंसते जा रहे हैं ।

वर्चुअल कनेक्शन जोड़ने के चक्कर में रियल सोशल कनेक्शन का नेटवर्क कमजोर होता जा रहा

कुछ रिसर्च के मुताबिक, सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर बच्चों की नींद पर पड़ता है। जिससे उनका Confidence हिल रहा है, खाने-पीने के तौर-तरीकों पर असर पड़ रहा है। बच्चों की आउटडोर एक्टिविटी कम होने और स्क्रीन में घुसे रहने की वजह से बच्चों का मेंटल हेल्थ बहुत हद तक प्रभावित हो रहा है। जब भी कोई तकनीक आती है तो उसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। स्मार्ट फोन से अगर जिंदगी आसान हुई है दुनिया की हर जानकारी उंगलियों के इशारे पर मौजूद है। दूसरा सच ये भी है कि मोबाइल इंटरनेट रोजाना आपको दुनिया से कनेक्ट करने के नाम पर अपनों के लिए समय कम देने पर मजबूर कर रहा है। घर-परिवार में संवाद की कड़ियां कमजोर हो रही है। खून के रिश्तों में भी भावनात्मक खाई बढ़ती जा रही है । वर्चुअल कनेक्शन जोड़ने के चक्कर में रियल सोशल कनेक्शन का नेटवर्क दिनों-दिन कमजोर होता जा रहा है ।

ऑस्ट्रेलिया की कुल आबादी ढाई करोड़ से थोड़ी अधिक है

ऑस्ट्रेलिया की कुल आबादी ढाई करोड़ से थोड़ी अधिक है। जिसमें 16 साल से कम उम्र के बच्चों की तादाद 50 लाख से भी कम होगी । अब इस तस्वीर को भारत के संदर्भ में देखें तो हमारे देश की आबादी एक अरब 40 करोड़ से अधिक है। जिसमें हर चौथे शख्स की उम्र 16 साल से कम है। मतलब, 35 करोड़ लोगों की उम्र 16 साल से कम है। ऐसे में अगर ऑस्ट्रेलिया जैसा ही कानून लाकर भारत में भी 16 साल से कम उम्र के बच्चों के सोशल मीडिया इस्तेमाल की लक्ष्मण रेखा खींच दी जाए तो क्या होगा? एक स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था और देश के भविष्य के लिए सबको गंभीरता से सोचना होगा कि सोशल मीडिया का कब, कहां और कितना इस्तेमाल करना है जिससे बच्चों की क्रिएटिविटी प्रभावित न हो।

कानून को जमीन पर लागू कैसे किया जाएगा ?

सोशल मीडिया पर रिश्ता जोड़ने के चक्कर में करीब के रिश्तों में ही दूरी न बन जाए। ऑस्ट्रेलिया में अपने मुल्क के बच्चों को सोशल मीडिया के साइड इफेक्ट्स के बचाने के लिए जो राह चुनी। उसके कामयाब होने को लेकर भले ही शक-सुबहा हो । भले ही सवाल उठ रहे हों कि कानून को जमीन पर लागू कैसे किया जाएगा ? बालू पर खींची लकीर बच पाएगी या दिग्गज टेक कंपनियों से टकराते हुए मिट जाएगी। मुल्क के बच्चों की सेहत और भविष्य के लिए ऑस्ट्रेलिया की पहल को अंधेरी सुरंग में एक रौशनी की तरह देखना चाहिए और विश्व समुदाय को भी इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए गंभीरता से सोचना चाहिए।

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