जम्मू-कश्मीर के लोगों के दिल में क्या है, 370 हटने के बाद कितना बदला सियासी समीकरण?
Bharat Ek Soch: जम्मू-कश्मीर में चुनाव की तारीखों के ऐलान से बाद सबका अपना-अपना धर्मसंकट है। चुनाव आयोग का धर्मसंकट ये है कि हाल में बढ़े आतंकी हमलों के बीच शांतिपूर्ण चुनावी प्रक्रिया को किस तरह पूरा किया जाए। सुरक्षाबलों का धर्मसंकट ये है कि आतंकियों के मंसूबों को कदम-कदम पर किस तरह नाकाम किया जाए। प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी और देश के गृह मंत्री के रूप में अमित शाह का धर्मसंकट ये है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों की उम्मीदों पर किस तरह खरा उतरा जाए। बीजेपी का धर्मसंकट ये है कि अगर विधानसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर के लोगों ने प्रचंड बहुमत से कमल नहीं खिलाया, तो फिर आगे क्या होगा? इसी तरह के धर्मसंकट से फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस, महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और कांग्रेस भी जूझ रहे हैं। ऐसे में शुरुआत करते हैं- जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के धर्मसंकट से। इस साल हुए लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में बीजेपी 24.36% वोट के साथ सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। सूबे की 5 लोकसभा सीटों में से सिर्फ 2 ही बीजेपी के खाते में आईं। संभवत: बीजेपी को जम्मू-कश्मीर में उम्मीद से कम कामयाबी मिली, लेकिन विधानसभा चुनाव में बीजेपी पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरने के लिए तैयार है- जहां उसके पास गिनाने और दिखाने के लिए पांच साल में हुए विकास के काम हैं, दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर के लोगों से किया वादा पूरा करने का ग्राफ भी है।
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विपक्षी पार्टियों के पास तीन मुद्दे
प्रधानमंत्री मोदी श्रीनगर की जमीन से कह चुके हैं कि विधानसभा चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस देने का काम होगा। बीजेपी को जम्मू-कश्मीर से बहुत उम्मीद है। पिछले पांच वर्षों में जम्मू-कश्मीर में माहौल जिस तरह से बदलने की कोशिश हुई। वहां निवेश लाने की कोशिश हुई। उसका असर जम्मू-कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों में दिखाई दे रहा है, लेकिन आतंकी हमले फिर से बढ़ने लगे हैं। ऐसे में विपक्षी पार्टियां बीजेपी को तीन मुद्दों पर घेरती दिख सकती हैं। नंबर वन- हाल में बढ़े आतंकी हमले। नंबर दो- पूर्ण राज्य की दर्जा वापसी और नंबर तीन- चुनाव की तारीखों के ऐलान से कुछ घंटे पहले बड़े पैमाने पर हुई अफसरों की अहम ट्रांसफर पोस्टिंग। माना जा रहा है कि बीजेपी घाटी में थोड़ा-बहुत प्रभाव रखने वाली कुछ पार्टियों के जरिए वोटों का समीकरण बदलने की कोशिश दिख सकती है। इस लिस्ट में गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रगतिशील आजाद पार्टी, अल्ताफ बुखारी की APNI पार्टी और सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियां हैं। जम्मू-कश्मीर के चुनावी अखाड़े में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस है। नेशनल कॉन्फ्रेंस का धर्मसंकट ये है कि पूर्व मुख्यमंत्री और फारूक अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि जब तक जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल नहीं हो जाता, चुनाव नहीं लड़ेंगे, लेकिन फारूक अब्दुल्ला ने बिना लाग-लपेट कह रहे हैं कि चुनाव लडूंगा। हालांकि चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद ऐसा लग रहा है कि उमर अब्दुल्ला अपनी कसम तोड़ने पर मंथन कर रहे हैं।
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नेशनल कॉन्फ्रेंस का धर्मसंकट
बाप-बेटा यानी फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर का ये विधानसभा चुनाव नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए करो या मरो जैसा है। बाप-बेटे की जोड़ी ये भी अच्छी तरह जानती है कि कश्मीर के लोगों के दिल में क्या है? ऐसे में नेशनल कॉन्फ्रेंस चुनाव में एकला चलो की राह पर दिख सकती है। जिसके संकेत पार्टी के बड़े नेता अभी से देने लगे हैं। माना जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जो रास्ता पकड़ा- उसमें पार्टी की सियासी जमीन मजबूत हुई है। लेकिन, धर्मसंकट ये है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस जनवरी 2015 से ही सत्ता से आउट है। चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी नेताओं के पास बताने या गिनाने के लिए कुछ खास नहीं है। अगर ये मौका भी हाथ से निकल गया, तो अगले पांच साल तक इंतजार करना होगा और राजनीति में पलड़ा उसी का भारी होता है, जो सत्ता में होता है। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस भी एक अजीब सी कश्मकश से गुजर रही है। वैसे तो नेशनल कॉन्फ्रेंस इंडिया गठबंधन का हिस्सा है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला शायद ही कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए तैयार हों। ऐसे में कांग्रेस किस रणनीति के साथ आगे बढ़ेगी, प्रदेश में कांग्रेस का चेहरा कौन होगा, ये देखना भी दिलचस्प होगा। फिलहाल, तो जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के नेता इस बात से बहुत खुश हैं कि चुनाव की तारीखों का ऐलान हो गया।
महबूबा मुफ्ती का ऐलान
सवाल ये भी उठ रहा है कि अगर चुनाव से पहले जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं हुआ, तो क्या होगा? इसमें किसका फायदा और किसका नुकसान है? उमर अब्दुल्ला की तरह पीडीपी की कर्ताधर्ता महबूबा मुफ्ती भी ऐलान कर चुकी हैं कि वो विधानसभा चुनावों में नहीं उतरेंगी। इसका मतलब ये नहीं हुआ कि पीडीपी विधानसभा चुनाव से दूरी बनाएगी। सिर्फ महबूबा मुफ्ती ने खुद को चुनाव से दूर रखने का ऐलान किया है। उन्होंने हाल ही में कहा कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को बंदर की तरह नचाया जा रहा है और प्रदेश की विधानसभा को एक म्यूनिस्पल कमेटी से भी कमतर बना दिया गया है। राजनीति में कोई भी नेता अपनी सहूलियत के हिसाब से फैसला लेता है और अपने फैसलों पर प्रदेश और लोगों की बेहतरी का मुलम्मा चढ़ा देता है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में महबूबा मुफ्ती में चुनाव नहीं लड़ने के अपने फैसले पर दोबारा विचार करें या अपनी बेटी इल्तिजा मुफ्ती को आगे कर दें, जो अभी अटैक इज बेस्ट डिफेंस की रणनीति पर आगे बढ़ती दिख रही हैं।
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90 सीटों पर चौतरफा मुकाबला
जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिलने तक विधानसभा चुनाव नहीं लड़ने की कसम दो बड़े नेताओं ने खाई है- उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती। इन दोनों ही नेताओं ने लोकसभा चुनाव में भी अपनी किस्मत आजमाई, लेकिन चुनाव हार गए। अब सवाल उठ रहा है कि क्या उमर और महबूबा अपनी कसम तोड़ेंगे या फिर चुनाव नहीं लड़ने की बात पर टिके रहेंगे। जम्मू-कश्मीर के सियासी अखाड़े में खड़ी ज्यादातर बड़ी पार्टियों को गठबंधन में फायदा कम और नुकसान अधिक दिख रहा है। ऐसे में बहुत हद तक जम्मू-कश्मीर विधानसभा की 90 सीटों पर चौतरफा मुकाबला दिखना तय माना जा रहा है, लेकिन कुछ सीटों पर Friendly Fight भी दिख सकती है। जिसका मकसद दिखावे के लिए ऑपरेशन और भीतरखाने को-ऑपरेशन हो सकता है। बीजेपी जम्मू-कश्मीर में प्रचंड बहुमत से विधानसभा चुनाव जीत कर पूरे देश में संदेश देना चाहती है कि Modi is always right...चुनावी राजनीति के अखाड़े में खड़ा हर महारथी अच्छी तरह जानता है कि चुनाव में सिर्फ जीत या हार होती है। सांत्वना पुरस्कार जैसी कोई चीज नहीं होती। ऐसे में चुनाव में अपने-अपने धर्मसंकटों से जूझते हुए सभी पार्टियां जीत के लिए पूरी ताकत के साथ मैदान में हैं और जम्मू-कश्मीर के 87 लाख वोटरों के तय करना है कि उनके सपनों को पूरा करने की काबलियत किस नेता में है। किस राजनीतिक दल में है।
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