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One Nation One Election: किसे फायदा, किसे नुकसान? क्या 2029 में साथ-साथ होंगे विधानसभा-लोकसभा चुनाव?

One Nation One Election: एक देश एक चुनाव फायदेमंद होगा या नुकसानदायक? क्या साल 2029 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना व्यवहारिक होगा। विपक्षी दलों के दिमाग में क्या सवाल हैं? क्या बिल सहमति से पारित हो जाएगा या अड़चनें भी हैं। आइए जानते हैं...
07:53 AM Dec 15, 2024 IST | Anurradha Prasad
Bharat Ek Soch
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Bharat Ek Soch: एक देश एक चुनाव की दिशा में मोदी सरकार ने एक और कदम बढ़ा दिया है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने वाले बिल को इसी हफ्ते कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। सोमवार यानी 16 दिसंबर को लोकसभा में इस बिल को पेश करने की तैयारी है। कानून और न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल इस संशोधन बिल को पेश करेंगे, लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि हमारे देश के किसी न किसी हिस्से में हमेशा चुनावी शोर सुनाई देता रहता है। लोकसभा चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए। फिर महाराष्ट्र और झारखंड चुनावी प्रक्रिया से गुजरे। अब दिल्ली में कभी भी चुनाव की तारीखों का ऐलान हो सकता है। राजधानी दिल्ली में चुनावी शोर थमेगा तो बिहार में वोट युद्ध शुरू हो जाएगा।

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हरियाणा में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। साल 2026 में असम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव तय हैं। अब सवाल यह उठ रहा है कि मोदी सरकार एक देश एक चुनाव का सिस्टम क्यों लागू करना चाह रही है? लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने वाले सिस्टम में विपक्षी दलों को कहां-कहां कमियां दिख रही हैं? अगर समय से पहले कोई सरकार अल्पमत में आ जाती है तो क्या होगा? विपक्ष One Nation One Election को भाजपा का चुनाव जीतने का जुगाड़ क्यों बता रहा है? इसे लागू करने के लिए संविधान में कहां-कहां संशोधन करना पड़ेगा? क्या लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने की दिशा में बढ़ते कदम हमारे संघीय ढांचे पर चोट करते हैं?

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भाजपा ने संशोधन किया तो 129वां बदलाव होगा

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यह कोई नहीं चाहता कि देश में विकास की रफ्तार सुस्त हो। देश के किसी-न-किसी हिस्से में हमेशा चुनाव चलता रहे और आचार संहिता के चक्कर में नीतिगत फैसलों में देरी हो। टैक्सपेयर्स की खून-पसीने की कमाई का बड़ा हिस्सा चुनाव में खर्च हो, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे संविधान की प्रस्तावना हम भारत के लोगों से शुरू होती है। हमारे देश के हुक्मरानों को शक्तियां लोगों से मिलती हैं। हम भारत के लोग चुनावी प्रक्रिया के जरिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हैं।

अगर कभी गलती हो जाए तो वोट की ताकत इस्तेमाल करके जनता उसे ठीक भी करती है। हमारे संविधान ने संघीय ढांचे को अपनाया गया है। उसमें केंद्र और राज्य दोनों की अपनी शक्तियां हैं और सीमाएं भी हैं। अब मोदी सरकार संविधान में एक बड़ा संशोधन करने की दिशा में बढ़ रही है, जिसे दुनिया शायद 129वें संवैधानिक संशोधन के नाम से जान सकती है। इसके जरिए लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने की स्क्रिप्ट आगे बढ़ाई जा रही है।

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विपक्षी दलों के दिल-दिमाग में यह सभी सवाल

विपक्ष को अभी One Nation One Election Bill के मसौदे का इंतजार है, लेकिन विपक्षी नेता पूछ रहे हैं कि अगर कोई सरकार 5 साल से पहले ही अल्पमत में आ जाती है तो क्या होगा? अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने का चक्र टूटा तो क्या होगा? अगर तय समय से पहले कोई राज्य सरकार विधानसभा में विश्वास मत खो देती है तो ऐसी स्थिति में क्या राज्यपाल के जरिए केंद्र उस राज्य में सरकार चलाएगा? कोई इस बात को लेकर भी आशंका जता रहा है कि एक देश एक चुनाव सिस्टम से केंद्र का वर्चस्व बढ़ेगा और संघीय ढांचा कमजोर होगा।

दलील यह भी दी जा रही है कि हमारे संविधान में जो व्यवस्था बनाई गई है, उसमें विधानसभाओं का कार्यकाल संसद पर निर्भर नहीं है। विधानसभाओं का कार्यकाल उनकी स्वतंत्रता का हिस्सा है। इतना ही नहीं संघीय ढांचा हमारे संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि मोदी सरकार का One Nation One Election की ओर बढ़ता कदम कहीं संघीय ढांचे को कमजोर तो नहीं करेगा? अब यह समझना भी जरूरी है कि लोकसभा-विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने का सिस्टम लागू करने के लिए संविधान में कहां-कहां संशोधन करना पड़ेगा?

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कमेटी की सिफारिश पर अमल संभव है या नहीं

एक देश एक चुनाव पर बनी रामनाथ कोविंद की अगुवाई वाली कमेटी ने एक साथ लोकसभा, विधानसभा चुनाव के साथ नगर निकाय, पंचायतों के चुनाव भी एक साथ कराने की सिफारिश की थी। इस कमेटी ने 2 चरणों में एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था, लेकिन केंद्र सरकार ने एक देश एक चुनाव के सिस्टम से अभी नगर निगम और पंचायतों को अलग रखने का फैसला किया है। संभवत: इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि संसद और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने के लिए सिर्फ एक नया अनुच्छेद जोड़ना होगा। विधानसभाओं की रजामंदी की जरूरत नहीं होगी।

लेकिन नगरपालिका और पंचायत को 5 साल से पहले भंग करने के लिए अनुच्छेद 325 में संशोधन करना पड़ता, जिसके लिए कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं की हरी झंडी की दरकार होती। ऐसे में मोदी सरकार अभी संसद और विधानसभाओं के चुनाव ही साथ कराने की ओर कदम बढ़ा रही है। अंदेशा यह भी जताया जा रहा है कि संसद और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होने से क्षेत्रीय मुद्दों और क्षेत्रीय पार्टियों का वजूद भी खतरे में आ सकता है। आजादी के बाद 4 लोकसभा चुनाव और राज्यों में विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए...उसके बाद यह सिलसिला टूटने लगा। अब सवाल ये उठ रहा है कि अगर देश में चुनाव का पूरा सिस्टम बदल गया तो यह कब तक चल पाएगा? इससे किसे फायदा और किसे नुकसान होगा?

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दुनिया के कई देशों में एक देश एक चुनाव व्यवस्था

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कहना है कि One Nation One Election सिस्टम लागू होने से देश की GDP एक से डेढ़ फीसदी बढ़ जाएगी, लेकिन पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने के लिए चुनाव आयोग को भी बहुत पसीना बहाना होगा। बड़े पैमाने पर नई EVM का इंतजाम करना होगा। करीब सालभर पहले मोदी सरकार ने महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में एक-तिहाई आरक्षण देने वाले नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 बनाया था, लेकिन महिलाओं को संसद और विधानसभाओं के भीतर आरक्षण कब मिलेगा..अब तक क्लीयर नहीं हुआ है?

ऐसे में एक सवाल यह भी उठ रहा है कि One Nation One Election लागू करने के लिए डेडलाइन कब की रखी जाएगी…साल 2029 या फिर ओपन रहेगा? दुनिया के नक्शे पर कई ऐसे देश हैं, जहां एक साथ चुनाव होते हैं। दक्षिण अफ्रीका में संसद, प्रांत और स्थानीय निकाय तीनों ही चुनाव साथ-साथ होते हैं। यूनाइटेड किंगडम के संविधान में भी एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था है। इंडोनेशिया, जर्मनी, ब्राजील जैसे देशों में भी एक साथ चुनाव होते हैं, लेकिन इनमें से किसी भी देश की आबादी भारत जितनी बड़ी नहीं है...न ही हमारे देश जितनी विविधता है। ऐसे में दुनिया में उन देशों के मॉडल को भी समझना जरूरी है...जिन्होंने एक देश एक चुनाव का सिस्टम अपना रखा है।

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एक देश एक चुनाव की राह में कई स्पीड ब्रेकर्स

भारतीय लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया की तुलना न तो अमेरिका से हो सकती है, न ही फ्रांस से और न ही स्वीडन जैसे देशों से। भारत दुनिया का सबसे बड़ा और समावेशी लोकतंत्र है। विविधता में एकता बनाए रखने के लिए संविधान निर्माताओं ने संघीय ढांचे को अपनाया। भारत के लोग राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों पर वोट की चोट से सरकार चुनते हैं। कई मौकों पर यह भी देखा गया है कि आम चुनाव में लोगों की पसंद कोई और राजनीतिक दल होता है तो विधानसभा चुनाव में दूसरा दल। ऐसे में हमारे लोकतंत्र के चरित्र में बड़ा बदलाव दिख सकता है, जिसमें क्षेत्रीय दल और क्षेत्रीय मुद्दों के लिए जगह दिनों-दिन कम हो सकती है।

यह भी हो सकता है कि भारत में नाम का Multi Party System रह जाए और चुनावी व्यवस्था एक या 2 दलों की परिक्रमा करने लगे। फिलहाल देश के भीतर एक देश एक चुनाव की राह में अभी कई स्पीड ब्रेकर्स दिख रहे हैं। इसमें एक तो इस विधेयक का संसद की दहलीज पार करना ही है। NDA में शामिल घटक दल भी जरूरी नहीं कि एक देश एक चुनाव पर एक सुर में बोलें। अगर संसद से बिल पास हो भी गया तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलनी तय है, क्योंकि संविधान के मूल ढांचे में बदलाव की बात उठेगी। ऐसे में One Nation One Election के मुद्दे पर आगे बढ़ना मोदी सरकार के लिए आग का दरिया पार करने जैसा होगा, जिसमें झुलसने का खतरा और पार करने के बाद बड़ी संभावनाएं दोनों साथ-साथ दिख रही होंगी।

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