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अमेरिका में किस तरह स्थापित हुआ लोकतंत्र, दुनिया को कैसे दिखाया समानता और न्याय का रास्ता?

Bharat Ek Soch: अमेरिका में 5 नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान होगा। जहां एक ओर कमला हैरिस हैं, तो वहीं दूसरी ओर डोनाल्ड ट्रंप। दोनों के बीच मुकाबला कांटे का नजर आ रहा है।
10:20 PM Nov 04, 2024 IST | Pushpendra Sharma
भारत एक सोच।
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Bharat Ek Soch: अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में आखिरी वक्त तक बाजी पलटने के लिए रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेट कमला हैरिस ने पूरी ताकत झोंक रखी है। 5 नवंबर को वोटिंग होनी है। रिपब्लिकन और डेमोक्रेट एक-एक वोट अपने पाले में खींचने के लिए इस तरह जूझ रहे हैं- जैसे युद्ध के मैदान में कोई फौजी आखिरी गोली तक आखिरी सांस तक लड़ता है। ट्रंप का नारा है– Make America Great Again यानी अमेरिका फर्स्ट के एजेंडे को मजबूती से आगे बढ़ाने की बात रिपब्लिकन कर रहे हैं। वहीं, कमला हैरिस के कैंपेन की लाइन है- A new way forward यानी अमेरिका के लिए नया रास्ता। दुनिया में आधुनिक लोकतंत्र के झंडाबरदार अमेरिका में चुनाव प्रचार के दौरान एक-दूसरे खिलाफ बिगड़े सुर भी सुनाई दिए।

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क्या महान है अमेरिकी लोकतंत्र?

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ट्रंप समर्थकों की तुलना कचरा से की, तो इस मुद्दे को ट्रंप ने तुरंत लपका और विस्कॉन्सिन की रैली में सफाईकर्मी की ड्रेस में कचरा उठाने वाले डंपर से पहुंच गए। अब डोनाल्ड ट्रंप कचरा को बड़ा मुद्दा बना कर कमला हैरिस का खेल पलटने में जुटे हुए हैं। जॉर्जिया की रैली में ट्रंप ने कमला हैरिस को फासीवादी बताया। वहीं, कमला हैरिस ट्रंप को अस्थिर और बदला लेने के लिए जुनूनी बता रही हैं। कई ऐसी बातें भी विरोधियों के बारे में चुनावी मंच से कही जा रही हैं- जो अमेरिकी लोकतंत्र की शान में बट्टा लगाती दिख रही हैं, लेकिन क्या वाकई अमेरिकी लोकतंत्र महान है? उसमें कमियां नहीं है। अमेरिकी लोकतंत्र वहां के आम आदमी की नुमाइंदगी करता है, उसकी आवाज अमेरिकी कांग्रेस यानी संसद में बुलंद करता है? आखिर अमेरिका में लोकतंत्र किस तरह स्थापित हुआ? वहां के लोकतंत्र ने दुनिया को किस तरह से स्वतंत्रता, समानता और न्याय का रास्ता दिखाया? ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।

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क्या है लाेकतंत्र का मूल चरित्र?

अमेरिका की आबादी करीब साढ़े 33 करोड़ है, जिसमें से 24 करोड़ वोटर हैं। अमेरिकी चुनाव में करीब 16 बिलियन डॉलर खर्च होने का अनुमान है। अगर रुपये में इसे बदला जाए तो ये रकम होगी 1 लाख 34 हजार करोड़ रुपये से अधिक। अमेरिका में चुनावी गाड़ी को आगे बढ़ाने में डॉलर अहम भूमिका निभाता है। ऐसे में किसी आम आदमी के लिए अमेरिका में चुनाव लड़ना और जीतना आसान काम नहीं है। ज्यादातर मामलों में चुनाव में उसी उम्मीदवार को कामयाबी मिलती है- जिसके पीछे ताकतवर बिजनेस लॉबी होती है। ऐसे में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी के बीच वहां के लोकतंत्र के मूल चरित्र को समझना जरूरी है। ये जानना भी जरूरी है कि अमेरिका में लोकतंत्र का बीजारोपण किस तरह हुआ? आज से 532 साल पहले दुनिया अमेरिका से अनजान थी...1492 में पहली बार क्रिस्टोफर कोलंबस के पैर अमेरिका की जमीन पर पड़े थे।

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सेना से टकराव 

उसके बाद यूरोपीय देशों को धरती के इस नए हिस्से की जानकारी मिली, तब ब्रिटेन महाशक्ति हुआ करता था, जिसने दुनिया के कई हिस्सों को अपना उपनिवेश बना रखा था। यूरोपीय लोगों का अमेरिका आना-जाना शुरू हो गया। धरती के इस हिस्से को उपनिवेश बनाने के लिए ब्रिटेन, स्पेन और फ्रांस में होड़ शुरू हो गई। अमेरिका के पूर्वी हिस्से में ब्रिटिश लोगों ने अपनी 13 कॉलोनियां बना लीं। ब्रिटेन के झंडे तले शासन चलाने लगे। ब्रिटिश सेना का वहां के मूल निवासियों से टकराव होने लगा। अमेरिका के मूल निवासी ब्रिटेन की नीतियों से बेहद खफा थे।

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उस दौर में अमेरिकियों का नारा था-प्रतिनिधित्व नहीं तो कर नहीं, जिसका नतीजा ये रहा कि 4 जुलाई 1776 को एक स्वतंत्र राष्ट्र का जन्म हुआ। नाम दिया गया संयुक्त राज्य अमेरिका। उसके बाद इस बात को लेकर मंथन शुरू हुआ कि अमेरिका किन मूल्यों और नियमों के साथ आगे बढ़ेगा? बहुत मंथन के बाद एक संविधान तैयार हुआ। जिसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि संविधान को संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों ने तैयार किया है...1789 में अमेरिका में लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ, तो जॉर्ज वॉशिंगटन पहले राष्ट्रपति बने।

दिखाई लोकतंत्र की राह

अमेरिका में आए बदलावों ने दुनिया को राजतंत्र से हटकर लोकतंत्र की राह दिखाई। दुनिया के नक्शे पर अमेरिका पहला देश बना, जिसका संविधान लिखित था। पहला ऐसा देश बना, जो साम्राज्यवाद को हराकर आजाद हुआ था। अमेरिकी लोकतंत्र की नींव रखने वाले यानी फाउंडिंग फादर्स पार्टी पॉलिटिक्स के खिलाफ थे। वहां के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन का ताल्लुक भी किसी राजनीतिक दल से नहीं था। वहां की व्यवस्था में पॉपुलर मैंडेट पर जोर रहा। लेकिन, अमेरिका में राष्ट्रपति से लेकर कांग्रेस के दोनों सदनों के लिए सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया में समय-समय पर बदलाव और सुधार होते रहे।

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अमेरिका में बदलाव की जो बयार चल रही थी। उसका असर यूरोप में साफ-साफ दिखने लगा। इंग्लैंड में संसदीय विकास की रफ्तार तेज हो गई। फ्रांस के राजा लुई सोलहवां की क्रूर शासन व्यवस्था, अफसरशाही और एलिट पावर के खिलाफ लोगों ने आवाज बुलंद की। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा बुलंद हुआ, जिसे दुनिया French Revolution के नाम से जानती है। फ्रांस की क्रांति के बाद यूरोप समेत दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी लोकतंत्रीय विचारों और गणतंत्र के लिए मजबूत जमीन तैयार होने लगी।

अब्राहम लिंकन का दौर 

अमेरिकी समाज की सबसे बड़ी खूबसूरती ये है कि वहां दुनिया के हर हिस्से के लोग बसे हुए हैं। अलग-अलग संस्कृति वाले अमेरिकी समाज में चुनौतियां और टकराव भी कम नहीं हैं। अमेरिका की क्रूर दास प्रथा पर अब्राहम लिंकन के दौर में रोक लगी। ये वहीं लिंकन हैं- जिन्होंने लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए कहा था..."Democracy is a rule of the people, for the people and by the people" दास प्रथा के मुद्दे पर अमेरिका में भीषण गृह युद्ध हुआ। जिसमें 6 लाख से ज्यादा लोग मारे गए। 20वीं सदी आते-आते अमेरिका दुनियाभर के देशों के लिए एक रोल-मॉडल बनने लगा। लेकिन, ये जानना भी जरूरी है कि अमेरिकी पॉलिटिक्स में टू पार्टी सिस्टम कैसे फला-फूला? डेमोक्रेट्स ने किस सोच के साथ गधा और रिपब्लिकन्स ने हाथी को अपनी राजनीतिक पहचान बनाया?

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स्पेशल इलेक्ट्रोरल कमीशन का गठन

अमेरिका में सत्ता हस्तांतरण के लिए टकराव का पुराना इतिहास रहा है। बात 148 साल पुरानी है। साल 1876 में अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए मतदान हुआ। उस चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी से रदरफोर्ड बी. हेस और डेमोक्रेटिक पार्टी से सैम्युअल टिल्डेन उम्मीदवार थे। उस दौर में भी अमेरिका में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अशांति का माहौल था। चुनाव के दौरान वोटरों को तोड़ने की कोशिश हुई, फर्जीवाड़े और पक्षपात के आरोप-प्रत्यारोप हुए। वोटों की गिनती में धांधली की बातें जोर-शोर से हुईं। ऐसे में राष्ट्रपति तय करने के लिए स्पेशल इलेक्ट्रोरल कमीशन का गठन हुआ। रिपब्लिकन रदरफोर्ड बी. हेस एक वोट से चुनाव जीत गए। अभी अमेरिका में जिस तरह का मौहाल बना हुआ है, ऐसे में इस बात की आशंका भी पैदा हो रही है कि कहीं चुनावी नतीजों के बाद नए तरह का संघर्ष न शुरू हो जाए।

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