हरियाणा: सत्ता में रही जेजेपी के सामने एक नहीं अनेक चुनौतियां; कैसे पार पाएंगे दुष्यंत चौटाला?
दिनेश पाठक, नई दिल्ली
Dushyant Chautala JJP Crisis : सरकार से बाहर होने के साथ ही जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के प्रमुख दुष्यंत चौटाला मुश्किलों से घिर गए हैं। वे साल 2019 का विधानसभा चुनाव पहली बार अपने बूते लड़े और 10 सीटों पर विजय हासिल की। बाद में वे किंगमेकर की भूमिका में आए और उसी भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देकर सरकार में शामिल हो गए, जिसके खिलाफ पूरे चुनाव में आग उगलते रहे थे। अब जब लोकसभा चुनाव का समय आया तो भाजपा ने अचानक सीएम खट्टर को हटाकर नायब सैनी को सत्ता सौंप दी और जेजेपी सरकार से बाहर कर दी गई। इस गठबंधन के टूटने का शोर भी किसी ने नहीं सुना।
ऐसा करने के साथ ही भारतीय जनता पार्टी ने सीएम खट्टर के खिलाफ बने माहौल को कुछ हद तक हल्का करने की कोशिश की है। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुई इस कार्रवाई का फायदा भाजपा को मिल भी सकता है। हालांकि, हरियाणा की राजनीति पर नजर रखने वालों का मानना है कि भाजपा का ताजा एक्शन केवल दिखाने के लिए है। भाजपा-जेजेपी, दोनों अभी भी एक-दूसरे के साथ हैं। सैनी के विश्वास मत के समय जेजेपी ने अपने दल के सभी विधायकों को मतदान से बाहर रहने का व्हिप जारी किया था। मतलब साफ था कि बहुमत सिर्फ 80 एमएलए के बीच होना था।
हरियाणा विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं। इस तरह सैनी के सामने बहुमत साबित करने की कोई चुनौती नहीं थी। वे आसानी से बहुमत पा गए। जबकि होना यह चाहिए था कि जब जेजेपी सरकार में शामिल नहीं थी तो वह विपक्ष में वोट करती। पर, ऐसा नहीं हुआ। इस अनजाने समझौते का सच क्या है, यह तो भाजपा-जेजेपी के नेतागण ही जानें लेकिन दुष्यंत चौटाला के लिए लोकसभा चुनाव की डगर एकदम से आसान नहीं है। मुश्किलें उनके सामने इसलिए खड़ी हैं क्योंकि उनके सभी विधायक एकजुट नहीं दिखाई दे रहे हैं। हिसार में 13 मार्च को हुई जनसभा में सब नहीं पहुंचे तो दिल्ली में हुई बैठक से भी कई विधायक गैरहाजिर रहे। नायब सैनी के विश्वास मत हासिल करने के दौरान भी कुछ जेजेपी विधायक सदन में पहुंचे थे, जबकि उन्हें वहां नहीं होना था। अंत समय में विधायकों की एकजुटता पार्टी के लिए मायने रखती है, पर ऐसा होता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। ऐसा लगता है कि पार्टी के अंदर सब कुछ सामान्य नहीं है।
जाट समुदाय के खिलाफ रहा रुख
एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जिन जाट वोटों के सहारे दुष्यंत विधानसभा में दस सीट जीतने में पहली बार कामयाब हुए थे, पूरे करीब साढ़े चार साल उन्हीं के खिलाफ काम करते रहे। जाट समुदाय के किसी भी आंदोलन में उनकी भागीदारी नहीं देखी गई। न ही किसानों के आंदोलन में और न ही पहलवान बेटियों के आंदोलन में, यह दोनों आंदोलन जाट अस्मिता से जुड़े हुए थे या यूं कहिए कि अभी भी हैं। पूरी की पूरी हरियाणा सरकार किसान आंदोलन के खिलाफ खड़ी रही। कानून-व्यवस्था के नाम पर किसानों के राह में रोड़े अटकाए। लठियां चलीं। दुष्यंत सरकार में डिप्टी सीएम थे लेकिन मौन रहे। ऐसे में यह चुनाव जेजेपी और उसके प्रमुख दुष्यंत के लिए चुनौतियों से भरा होने वाला है।
यद्यपि, हरियाणा का चौटाला परिवार राजनीति ही करता आ रहा है। अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। राजनीति में दुष्यंत चौथी पीढ़ी के सदस्य हैं। मतलब इनके लिए राजनीतिक जोड़-तोड़ आम है। सत्ता में बने रहने के लिए चौटाला परिवार ने अनेक बार भांति-भांति के गठबंधन किए हैं। चौधरी देवीलाल राजनीतिक खिलाड़ी के रूप में हरियाणा के सीएम से लेकर देश के डिप्टी पीएम तक बने। जब वे डिप्टी पीएम बने तो भी केंद्र में गठबंधन की ही सरकार थी। उनके पुत्र ओमप्रकाश चौटाला भी कई बार सीएम बने। अनेक घपले-घोटालों और विवादों में भी रहे। जेल गए। फिर छूटे। सजा काटी। ओमप्रकाश चौटाला के पुत्रों अभय और अजय पिता द्वारा स्थापित इंडियन नेशनल लोकदल के बैनर तले राजनीति करते रहे लेकिन कालांतर में दोनों भाइयों में मतभेद सामने आया और अजय चौटाला के पुत्र दुष्यंत ने जननायक जनता पार्टी का गठन कर चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया। दुष्यंत पहली बार 2014 में महज 26 साल कि उम्र में हिसार से संसद सदस्य चुने गए। साल 2019 के चुनाव में उन्हें भाजपा ने हरा दिया लेकिन इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में वे किंगमेकर बनकर उभरे और भाजपा की सरकार बनवाकर डिप्टी सीएम बने। उनके पिता तो राजनीति में कुछ खास नहीं कर पाए लेकिन दादा ओमप्रकाश चौटाला पांच बार हरियाणा के सीएम बने थे।
दुष्यंत के सामने तीन बड़ी चुनौतियां
अब दुष्यंत के सामने चुनौती के रूप में तीन महत्वपूर्ण बिंदु हैं। लोकसभा चुनाव, उसके ठीक बाद विधानसभा चुनाव और खुद की पार्टी को स्थापित करना या विस्तार देना। अगर लोकसभा चुनाव में वे कुछ भी हासिल कर पाते हैं तो निश्चित ही कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ेगा। हालांकि, अकेले चुनावी मैदान में बहुत उम्मीद नहीं है। अगर सरकार में न होते तो संभावना ज्यादा बनती। ऐसे में माना जा रहा है कि साल 2019 में भाजपा सरकार बनवाने और नायब सैनी के विश्वास मत से दूर रहने का इनाम उन्हें लोकसभा में मिल सकता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो वे उसी केंद्र और राज्य सरकार के खिलाफ चुनावी रैलियों में बोलेंगे जिसकी मलाई वे सत्ता में बैठकर खाते रहे। फिर विधानसभा चुनाव अक्टूबर में होने की संभावना है। ऐसे में यही रुख उन्हें बरकरार रखना होगा। नया दल बनाने और उसे स्थापित करने की खुद में एक अलग चुनौती होती है। अगर दल नया है और सत्ता में है तो चीजें आसान होती हैं लेकिन नया दल है और सत्ता से दूरी है तब तो कार्यकर्ताओं को एकजुट करने में ही नेताओं के पसीने छूटते हैं। देखना रोचक होगा कि यंग लीडर के रूप में दुष्यंत चौटाला किस तरीके से इनसे निपटते हैं? किसी गठबंधन हिस्सा बनते हैं या फिर अकेले चुनाव मैदान में उतरते हैं?