Lok Sabha Election Throwback: वो चुनाव, जिसमें सबसे ज्यादा वोट प्रतिशत होने के बावजूद हार गई थी कांग्रेस
दिनेश पाठक, वरिष्ठ पत्रकार
Lok Sabha Election Throwback: 11वीं लोकसभा भले ही अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई, लेकिन उस छोटे से कार्यकाल में देश की सियासत में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जो न पहले कभी हुआ था, न ही अब तक हुआ। भारतीय जनता पार्टी पहली बार सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। अटल बिहारी वाजपेयी पहली दफा प्रधानमंत्री बने, लेकिन ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में रिकॉर्ड बनाया, जो सिर्फ 13 दिन कुर्सी पर रह सका।
जी हां, यह रिकॉर्ड अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर आज तक भी है। इसी लोकसभा ने 2 साल में 3-3 प्रधानमंत्री देखने को मिले। कार्यकाल फिर भी पूरा नहीं हुआ और देश तीसरी बार मध्यावधि चुनाव का सामना करने को मजबूर हुआ। इसके बाद साल 1998 में भारत में फिर से आम चुनाव हुए। 11वीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा 29 फीसदी वोट मिले थे, फिर भी पार्टी चुनाव हार गई थी।
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किसी को नहीं मिला बहुमत, 2 साल में 3 प्रधानमंत्री देखें
11वीं लोकसभा के चुनाव में भारतीय मतदाताओं ने सत्तारूढ़ कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार को हटा दिया था, लेकिन किसी को बहुमत भी नहीं दिया था। भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई, जिसे 161 सीटें मिलीं। इसी कारण तब के राष्ट्रपति रहे पंडित शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने को आमंत्रित किया। उन्होंने शपथ ली, लेकिन सिर्फ 13 दिन में इस्तीफा देना पड़ गया, क्योंकि उन्हें बहुमत के लिए जरूरी समर्थन नहीं मिल सका।
फिर विपक्षी दलों ने मिलकर गठबंधन बनाया और एचडी देवेगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। यह दूसरा मौका था, जब दक्षिण भारतीय राज्य से आने वाले नेता ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इससे पहले नरसिंह राव को यह अवसर मिला था। चुनाव के बाद बना यह गठबंधन बहुत दिन तक नहीं चला और देवेगौड़ा को बमुश्किल डेढ़ साल में ही इस्तीफा देना पड़ा। उन्हीं की सरकार में मंत्री रहे इन्द्र कुमार गुजराल कांग्रेस के समर्थन से 11वीं लोकसभा में तीसरे प्रधानमंत्री बने। बेहद साफ-सुथरे आईके गुजराल की सरकार भी कुछ महीने ही चली। फिर 1998 में एक बार फिर आम चुनाव हुए।
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वोटों का बंटवारा, क्षेत्रीय दलों की संसद में मजबूत दस्तक
11वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आने शुरू हुए तो अहसास होने लगा था कि हंग पार्लियामेंट के गठन के आसार हैं। इस चुनाव में 20 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट पाने वाली भारतीय जनता पार्टी 161 सीटें जीतने में कामयाब हुई तो लगभग 29 फीसदी वोट लेने वाले कांग्रेस को सिर्फ 140 सीटें ही मिल सकीं। 10वीं लोकसभा की तर्ज पर जनता दल 46 सीटों पर जीत दर्ज करके तीसरे सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया। इस चुनाव में जनता दल के अलावा 8 ऐसे दल भी थे, जिनके सांसदों की संख्या दहाई में थी। यही वजह थी कि उस चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिल सका। वोटों का खूब बंटवारा हुआ। यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रीय दलों ने अपना विस्तार किया। वे मतदाताओं के बीच अपनी बात पहुंचाने में कामयाब रहे।
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14 हजार कैंडिडेट्स मैदान में उतरे, क्षेत्रीय दल भी उभरे
सभी 543 सीटों पर चुनाव एक साथ हुए थे। लगभग 58 फीसदी मतदाताओं ने वोट डाले थे। 14 हजार कैंडिडेट्स मैदान में थे। इनमें 10 हजार से कुछ ज्यादा तो निर्दलीय थे, जिनमें से सिर्फ 9 जीते थे। 8 राष्ट्रीय राजनीतिक दल, 30 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भी मजबूत भागीदारी दिखाई थी। 171 नए दल और इतनी बड़ी संख्या में कैंडिडेट इस बात का संकेत दे रहे थे कि आम भारतीय नागरिक अब राजनीति में गहरी रुचि लेने लगा है। यह भी कि आम लोगों में संसद पहुंचने की ललक भी बढ़ी है। यह पढ़ाई-लिखाई का स्तर बढ़ने का असर भी हो सकता है या फिर रोल मॉडल बने नेताओं का आम जनमानस पर असर हो सकता है। यही वह समय था, जब राजनीति में बड़ी संख्या में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों ने दस्तक दे दी थी।
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वोट ज्यादा मिले, सीटें कम हुईं, भाजपा का हुआ विस्तार
यह पहला चुनाव था, जब कांग्रेस को वोट भले ही सबसे ज्यादा मिले, लेकिन सीटें देशभर में कम हुईं और भारतीय जनता पार्टी का राज्यों में विस्तार हुआ। इसलिए कम मत पाने के बावजूद उसे सीटें ज्यादा मिलीं। यह कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी थी। इस दल ने खुद में कोई सुधार भी नहीं किया, क्योंकि बाद में कांग्रेस के नेतृत्व में भले ही 2 बार सरकार बनी, लेकिन एक राजनीतिक दल के रूप में उसका प्रदर्शन कभी औसत तो कभी औसत से भी नीचे ही चल रहा है। देश में अस्थिरता का यह दौर लंबे समय तक चला। इस बीच भारतीय जनता पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया और उसमें लगातार सुधार भी दिखाई दे रहा है। इस तरह तमाम खट्टे-मीठे परिणामों के बीच देश ने 1998 में फिर से आम चुनाव देखा।
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