पहले शिवसेना...NCP और अब अकाली दल', 'अपनों' को ही दगा दे रही BJP? पंजाब में चल रहा नया 'खेल'
BJP betraying Shiv Sena NCP Akali Dal: लोकसभा चुनाव 2024 में पंजाब में शिरोमणि अकाली दल एक सीट पर सिमट कर रह गई। बठिंडा से पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल चुनाव जीतने में सफल रही। ऐसे में लोकसभा चुनाव में हार के बाद से ही अकाली दल की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के इस्तीफे की मांग की है। कुल मिलाकर पार्टी दो धड़ों में बंट चुकी है। एक धड़ा सुखबीर बादल का है जो उन्हें अध्यक्ष बनाकर रखना चाहता है जबकि दूसरा धड़ा बादल परिवार के बाहर के किसी नेता को पार्टी की कमान सौंपना चाहता है। इस बीच बादल समर्थकों ने बीजेपी पर पार्टी को तोड़ने का आरोप लगाया है।
बादल समर्थक अकाली दल के नेता परमजीत सिंह ने कहा कि बुधवार को कहा कि मैंने लिखित बयान दिया है। भाजपा मेरे खिलाफ जो चाहे कार्रवाई कर सकती है, अगर भाजपा को लगता है कि यह एक फर्जी आरोप है, तो मैं उन्हें बहस के लिए बुलाता हूं और मैं साबित कर दूंगा कि यह ऑपरेशन लोटस है। भाजपा सभी क्षेत्रीय दलों को कमजोर और खत्म करना चाहती है। हम ऐसा नहीं होने देंगे। ऐसे में ये सब कैस हुआ आइए स्टेप बाई स्टेप जानते हैं।
पार्टी मीटिंग बुलाकर सुखबीर बादल ने दिखाई ताकत
लोकसभा चुनाव में हार के बाद अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के खिलाफ कुछ नेता बगावती तेवर दिखाने लगे। बागी नेताओं ने सुखबीर सिंह बादल से इस्तीफे की मांग कर डाली। इसके बाद हरकत में आए सुखबीर सिंह ने चंडीगढ़ स्थित पार्टी के कार्यालय पर बैठक बुलाई। बैठक में 33 जिलाध्यक्ष और 96 निर्वाचन प्रभारी शामिल हुए। वहीं इस प्रस्ताव के बाद काॅन्फिडेंस में आए सुखबीर बादल ने पार्टी की बैठक में कहा मैं अकाली दल को विरोधियों के हाथों की कठपुतली नहीं बनने दूंगा। विरोधियों को उनके मकसद में कामयाब नहीं होने दूंगा। जो लोग उन लोगों के साथ मिलकर पंजाब को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं वे अपना अलग रास्ता चुनने के लिए आजाद हैं। ऐसे में आइये जानते हैं पुरानी सहयोगी पार्टियां भाजपा पर पार्टी को तोड़ने का आरोप क्यों लगाती हैं?
1997 में बना रिश्ता 2019 में टूटा
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और भाजपा 1997 से साझेदार थे। अकाली भाजपा के साथ 1997 से लेकर 2019 तक रहे। किसान बिल के मुद्दे पर पंजाब में किसानों की खिलाफत झेलने के बाद शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा से केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर गठबंधन तोड़ लिया। 2024 में दोनों पार्टियों के साथ आने की अटकलें थी कि ऐसा संभव हो नहीं पाया। किसान और जट्ट सिखों में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनने के बाद शिरोमणि ने अकेले चुनाव लड़ना मुनासिब समझा।
शिवसेना- महाराष्ट्र में 1996 से भाजपा के साझेदार शिवसेना ने भी 2019 में भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सीएम पद को लेकर पेंच फंसने के बाद उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली। 3 साल तक सफलतापूर्वक सरकार चलाने के बाद शिवसेना के नेता एकनाथ शिंदे ने बगावत कर दी। वे पार्टी के 39 विधायकों के साथ पहले गुजरात और फिर असम चले गए। इसके बाद महाअघाड़ी सरकार अल्पमत में आ गई और उद्धव ठाकरे को इस्तीफा देना पड़ा।
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ठाकरे के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया चुनाव आयोग ने। चुनाव आयोग ने न सिर्फ नाम छीना बल्कि पहचान रूपी सिंबल भी शिंदे को दे दिया। ठाकरे ने पार्टी तोड़ने का आरोप बीजेपी और देवेंद्र फडणवीस पर लगाया। इसका नुकसान पार्टी को लोकसभा चुनाव में भी हुआ। लोकसभा में 23 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बीजेपी को इस चुनाव में 9 सीटों पर जीत मिलीं। संघ ने भी शिंदे और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने को लेकर बीजेपी को कठघरे में खड़ा किया।
एनसीपी- महाअघाड़ी सरकार गिरने के बाद शिंदे और बीजेपी मिलकर सरकार चला रहे थे इस बीच नेतृत्व न मिलने से नाराज अजित पवार ने भी छगन भुजबल और प्रफुल्ल पटेल के साथ मिलकर पार्टी तोड़ दी। शरद पवार को सहानुभूति लहर का फायदा मिला और लोकसभा चुनाव में 10 सीटों पर लड़कर 8 सीटों पर जीत दर्ज की। जबकि अजित पवार 1 सीट पर सिमट गए। शरद पवार ने इस बगावत के लिए भी बीजेपी को कसूरवार ठहराया और पार्टी को संघ की खरी-खोटी सुननी पड़ी। कुल मिलाकर महाराष्ट्र में बीजेपी का शिवसेना और एनसीपी को कथित तौर पर तोड़ना भारी पड़ गया।
जेडीयू- नीतीश कुमार 2014 के बाद से कई बार महागठबंधन और एनडीए का हिस्सा रह चुके हैं। 2014 में पीएम मोदी की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी के बाद नीतीश कुमार ने एनडीए से नाता तोड़ लिया और आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बना ली। मोदी के प्रधानमंत्री बनने से नीतीश इतना आहत हुए कि उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी को सीएम बना दिया। हालांकि 6 महीने बाद ही वे एक बार फिर सीएम बन गए।
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2015 में जेडीयू ने आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। बीजेपी की हार हुई। नीतीश कुमार पहली बार बीजेपी के बिना सहयोग के सीएम बने। 2017 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सुशील कुमार मोदी की मेहनत रंग लाई और नीतीश आरजेडी से अलग होकर एनडीए में शामिल हो गए। 3 साल तक सरकार चलाने के बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों साथ रहे।
जेडीयू ने भी लगाया था पार्टी तोड़ने का आरोप
2019 के लोकसभा चुनाव में कैबिनेट मंत्री का पद मांग रहे जेडीयू को निराशा हाथ लगी। राज्य मंत्री का ऑफर बीजेपी से मिला तो नीतीश नाराज हो गए। इसके बाद नीतीश सितंबर 2022 में बीजेपी पर पार्टी तोड़ने के षड्यंत्र का आरोप लगाते हुए एनडीए से अलग हो गए। आरसीपी सिंह राज्यसभा सांसद थे उनका कार्यकाल खत्म हो रहा था। ऐसे में उन्हें मंत्री बने रहने के लिए सदन का सदस्य होना जरूरी था। लेकिन नीतीश ने उनकी जगह अपने किसी अन्य विश्वस्त को राज्यसभा भेज दिया।
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इशारा साफ था वे आरसीपी सिंह से खुश नहीं थे क्योंकि आरसीपी सिंह बीजेपी से नजदीकियां बढ़ा रहे थे। इसके बाद नीतीश ने इंडिया गठबंधन की नींव रखी लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 के ऐलान से ठीक पहले एक बार फिर एनडीए में आ गए। कुल मिलाकर कथित ऑपरेशन लोटस जो कि पार्टियों को तोड़ने के लिए बीजेपी चलाती है उसमें यहां सफल नहीं हो सकी।