MP Assembly Election 2023: मध्यप्रदेश में कांटे का मुकाबला, BJP के सामने ये बड़ी चुनौतियां
राजेश बादल की कलम से
MP Assembly Election 2023: मध्यप्रदेश में चुनाव प्रचार चरम पर है। आमतौर पर विधान सभा चुनाव के समीकरणों और संभावित परिणामों का आकलन स्थानीय मुद्दों और चेहरों के आधार पर ही किया जाता है ।इसलिए मतदान के ठीक पहले तक कोई सटीक विश्लेषण बहुत आसान नहीं होता । फिर भी प्रदेश के ज़मीनी हालात और सियासी पार्टियों का अंदरूनी मिजाज़ तो पढ़ा ही जा सकता है । आमतौर पर मध्यप्रदेश में दोनों बड़े दल – भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ही आमने सामने रहते हैं। राज्य के गठन के 67 साल बाद भी कोई ठोस तीसरी ताक़त यहां नहीं उभर पाई है। क़रीब पाँच फ़ीसदी स्थानों पर ही अन्य पार्टियों का ज़ोर रहता है। इसलिए वे सरकार बनाने वाले दल के रास्ते में कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभा पातीं। इस बार भी यही दोनों पार्टियां मुक़ाबले में हैं। दिलचस्प है कि एकाध अपवाद को छोड़ कर दोनों दलों का मत प्रतिशत भी लगभग समान ही रहता है। एक से लेकर तीन फ़ीसदी मतों के अंतर से एक पार्टी सरकार बना लेती है और इतने ही अंतर से दूसरी पार्टी विपक्ष की बेंचों पर चली जाती है।
नैतिक धरातल पर हार चुकी है भाजपा
लेकिन इस बार चुनाव की तस्वीर दिलचस्प है। मध्यप्रदेश के मतदाताओं ने पिछले बार ही भारतीय जनता पार्टी को जनादेश नहीं दिया था। कांग्रेस ने सरकार बना ली थी ,लेकिन सिंधिया राजघराने के प्रतिनिधि ज्योतिरादित्य सिंधिया की बग़ावत के चलते कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने सत्ता खो दी और एक बार फिर बीजेपी की तिकड़म से शिवराज सरकार बन गई। राज्य के इतिहास में दूसरी बार इस तरह सरकार गिराने की साज़िश रची गई थी। इससे पहले सत्तर के दशक में ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयाराजे सिंधिया ने ऐसी ही बग़ावत करके भारतीय राजनीति के चाणक्य पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र की कांग्रेस सरकार गिराई थी। कह सकते हैं कि नैतिक धरातल पर तो भारतीय जनता पार्टी पिछले चुनाव में ही हार चुकी थी।
लंबे समय तक शासन जनता के लिए ठीक नहीं
वैसे किसी भी साफ़ सुथरे लोकतंत्र का तक़ाज़ा तो यही है कि पक्ष और प्रतिपक्ष को अपने अपने ढंग से सरकारें चलाने का अवसर मिलना चाहिए। इससे समाज के अंतिम छोर पर खड़े मतदाता की सेवा और प्रदेश का विकास बेहतर ढंग से होता है। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी सरकार पिछले बीस साल से सत्ता में है ( कमलनाथ का अल्पावधि कार्यकाल छोड़कर )।दो दशक काफी होते हैं। एक पार्टी के लंबी अवधि तक शासन करने के कारण राज रोग पनपने लगते हैं , लोकतांत्रिक भावना कमज़ोर होने लगती है और एक क़िस्म का सामंत भाव पनपने लगता है। पार्टी इस दर्प में डूबी रहती है कि वह अनंत काल तक सत्ता में रहेगी और मतदाता की मजबूरी है कि उसे चुने। इसका नतीजा भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है। दबंगी के साथ सत्तारूढ़ दल के नेता घोटाले करते हैं। सत्ता में सेवा का नहीं ,मेवा का आकर्षण रह जाता है। सरकार और संगठन के बीच महत्वाकांक्षाओं का टकराव होता है। उनके गुट बन जाते हैं। स्वार्थों के चलते लोकहित के काम हाशिए पर चले जाते हैं। जब चुनाव आते हैं तो सरकार की उपलब्धियों की स्लेट कोरी होती है। फिर सरकार चुनाव जीतने के लिए मुफ़्त दान की घोषणाएं करती है ,जो कतई संवैधानिक और लोकतांत्रिक नहीं होता।
शिवराज से नाराज भाजपा के स्थानीय नेता
मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार का इन दिनों कम से कम मुझे तो यही रूप दिखाई दे रहा है।इस वजह से वह कांग्रेस से तीन से पांच फ़ीसदी मतों से पीछे चल रही है। उम्मीदवारों का नाम घोषित होने के बाद और उनके अपने निजी स्तर पर प्रचार अभियान का मूल्यांकन करने के बाद शायद स्थिति और स्पष्ट हो सकेगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दूसरी पंक्ति के नेताओं की भी उपेक्षा की है। इससे वे नाराज़ हैं। नरोत्तम मिश्रा,प्रभात झा, प्रदेश अध्यक्ष वी डी शर्मा ,पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ,राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ,केंद्रीय मंत्री द्वय प्रहलाद पटेल ,नरेंद्र सिंह तोमर से लेकर शिवराज सिंह से वरिष्ठ नेता रघुनन्दन शर्मा व सत्यनारायण सत्तन तक असहज महसूस कर रहे हैं। यह अलग बात है कि नाराज़गी का एक बड़ा कारण आलाकमान का रवैया और कामकाज की शैली भी है।
विपक्ष के तौर पर कांग्रेस विफल
जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो सदन के भीतर प्रतिपक्ष के रूप में उसकी भूमिका बहुत असरदार नहीं रही। कमलनाथ सरकार गिरने के बाद लगे झटके से अभी तक पार्टी उबर नहीं पाई है। यह अलग बात है कि सरकार गिराने के लिए ज़िम्मेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया की छबि भी धूमिल हुई है। आम जनता के बीच यही सन्देश गया है कि यह राजवंश अपने हितों की ख़ातिर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार गिराने में भी कोई संकोच नहीं करता। यही सामंती भाव है ,जो आज भी भारतीय लोकतंत्र के सामने बड़ी चुनौती है। हालांकि मल्लिकार्जुन खड़गे के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाने के बाद और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के सकारात्मक परिणामों ने पार्टी के भीतर उत्साह पैदा किया है। हिमाचल और कर्नाटक के विधानसभा निर्वाचन परिणामों ने पंचायत स्तर तक कार्यकर्ताओं तथा नेताओं के बीच आक्रामक शैली में चुनाव प्रचार करने का माहौल बना दिया है। इसके अलावा कांग्रेस छोड़कर जाने वालों पर भी लगाम लगी है। इन सबसे ऊपर शिवराज सरकार के प्रति मतदाताओं की नाराज़गी ने व्यवस्था विरोधी वातावरण बना दिया है। नकारात्मक वोटों का लाभ कांग्रेस को मिल सकता है।
कमलनाथ के लिए अंतिम मौका
मैं पिछले छियालीस साल से चुनाव कवर कर रहा हूं। शायद यह पहला चुनाव देख रहा हूं,जिसमें सत्ता पक्ष से विपक्ष की ओर पलायन की रफ़्तार बहुत तेज़ है। इसका लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। हां उसके बड़बोले नेताओं को अपने पर लगाम लगानी होगी। आज की तारीख़ में वह बढ़त बनाए हुए है। अलबत्ता मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ के लिए भी यह चुनाव चेतावनी भरा सन्देश लेकर आए हैं। उनके लिए प्रादेशिक स्तर का संभवतया यह अंतिम चुनाव है। उन्हें अपने को और सहज तथा सामान्य बनाने की आवश्यकता है। एक छोटा सा सामंत उनके भीतर भी है। यदि वह उसे दूर कर लेते हैं तो कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी को पटखनी दे सकती है। पर ,उनके लिए यह आसान नहीं है। विपक्ष के रूप में प्रादेशिक स्तर पर पार्टी की भूमिका बहुत सराहनीय नहीं कही जा सकती। मैं कह सकता हूं कि 1979 के बाद से जितने बार भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी है ,उसमें विपक्ष का योगदान अधिक रहा है। कांग्रेस को एक तरह से तश्तरी में सत्ता मिली है। पहली बार 2023 के चुनाव में कांग्रेस ज़मीनी स्तर पर एकजुट होकर लड़ती दिखाई दे रही है।