Gopaldas Neeraj Jayanti: मेरी मृत्यु हो जाए तो छू लेना पर रोना मत... जानें गोपालदास नीरज का वो किस्सा, जो बेटे के लिए है यादगार
Gopaldas Neeraj Jayanti: गोपालदास नीरज गीतों की दुनिया के ऐसा नाम हैं, जिनके लिखे बोलो ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में अपनी अलग ही छाप छोड़ी है। पद्मभूषण से सम्मानित गीतकार एवं कवि नीरज का का जन्म 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा में हुआ था। नीरज को 1991 में पद्मश्री और 2007 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें यश भारती सम्मान से भी नवाजा था। उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए तीन बार फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला था। 2018 में गोपालदास नीरज हम सबको छोड़कर चले गए थे।
1971 में फिल्म पहचान का गीत ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, 1972 में फिल्म मेरा नाम जोकर का ‘ए भाई! जरा देख के चलो’, फिल्म 'गैंबलर' का 'दिल आज शायर है गम आज नगमा है', नीरज द्वारा लिखित कुछ प्रसिद्ध गीत हैं। इसके अलावा उनका 1969 में आई हिंदी फिल्म 'चंदा और बिजली' का गाना 'काल का पहिया घूमे भैया' भी काफी लोकप्रिय हुआ था।
गोपालदास नीरज की सौवीं जयंती पर उनके पुत्र शशांक प्रभाकर ने नीरज जी के जीवनकाल का वो किस्सा बताया है, जो दर्शाता है कि वो कितने दूरदर्शी और संवेदनशील व्यक्तित्व के स्वामी थे। शशांक नीरज को याद करते हुए कहते हैं कि स्मृतियां जब आपको निरंतर घेरे रहती हैं तब वो आदत बन जाया करती हैं। ऐसी ही एक आदत का नाम है 'नीरज' यानी मेरे बाऊजी। मुझे लगता है कि वो मेरे जीवन से कभी गए ही नहीं। उनके साथ बिताये हुए पल मुझे जाग्रत रहने की प्रेरणा और संबल देते रहते हैं।
एक वाकया कुछ वर्षों पूर्व एक रेल यात्रा के दौरान घटित हुआ। कुछ 25-30 वर्ष पूर्व बाऊजी और मुझे जबलपुर कवि सम्मेलन जाने का निमंत्रण मिला। बाउजी और मैं आगरा से जबलपुर ट्रेन से जाने वाले थे, लेकिन बाऊजी को हल्का बुखार आ गया और उन्होंने मुझसे कवि-सम्मेलन में जाने में असमर्थता जताई। मैंने उनको हौसला देते हुए कहा, "कोई नहीं मैं आपके साथ हूं, चलते हैं।"
रात्रि को ट्रेन द्वारा सफर कर हम सुबह जबलपुर पहुंचे, तो बाऊजी का बुखार और तेज हो चुका था। आयोजकों ने नामी डॉक्टर से दवाई दिलवाई और आराम करवाया। शाम तक बुखार नहीं टूटा। इसी तेज बुखार में शाम को हम दोनों ने कविता पाठ किया और जैसे-तैसे कवि-सम्मेलन को पूर्ण किया।
दूसरे दिन हमें ट्रेन से आगरा लौटना था। बाऊजी उसी तेज बुखार में ट्रेन में सवार हुए। बाऊजी का सेकंड AC में रिजर्वेशन था और मेरा सेकंड क्लास में। अब हम एक ही ट्रेन में अलग-अलग सफर कर रहे थे। बाऊजी की तबीयत खराब होने के कारण ट्रेन जब किसी स्टेशन में रुकती, तो मैं उतरकर उनको देखने जाता था। इस तरह करते-करते रात्रि का समय आ गया और मेरी चिंता बढ़ गई। रात लगभग 10.30 बजे ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी, तो मैं बाऊजी को देखने आखिरी बार गया।
जब मैं उनके पास पहुंचा, तब वे बोले, "अब तुम किसी भी स्टेशन पर मुझे देखने नहीं आ सकोगे; क्योंकि अब AC के दरवाजे बंद हो जाएंगे और टीटी तुमको चढ़ने नहीं देगा। फिर भी अगर आओ तो मेरी एक बात ध्यान रखना। मेरी तबीयत ज्यादा खराब है श्याम (मेरा घरेलू नाम), मेरी उमर भी हो चुकी है। अगर मेरी मृत्यु हो जाए, तो मुझे छूकर देख लेना मगर रोना नहीं, क्योंकि अगर तुम रोओगे तो यात्रिगण समझ जाएंगे कि मेरी मृत्यु हो चुकी है और वह इस बात की शिकायत टीटी से करेंगे।
टीटी को मजबूरन अगले स्टेशन पर मेरे शव को रात्रि में उतारना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में पोस्ट मॉर्टम, डेथ सर्टिफिकेट, शिनाख्त, पुलिस आदि का झंझट फैल जाएगा। फिर तुम्हें टैक्सी कर मेरे पार्थिव शरीर को आगरा ले जाना होगा। यह सब बहुत बड़ी मुसीबत हो जाएगी। इसलिए तुम जब देखो कि मैं मर चुका हूं, तो मुझे पूर्ण रूप से शॉल से ढक देना और बिना विलाप किए आगरा तक इंतजार करना।"
जीवन के यह वास्तविक क्षण पिता-पुत्र के थे, मित्र से मित्र के थे, गुरु-शिष्य के थे या भगवान और भक्त के थे, मालूम नहीं। आदरणीय बाऊजी जीवन में कितने सहज और जाग्रत थे, मुझे यह उस दिन अहसास हुआ। अब यह बाऊजी के साथ गुजारे पल मेरे जीवन के लिए सूक्तियां बन गए हैं।
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