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हरियाणा में देवीलाल और बीडी शर्मा की लड़ाई में बंसीलाल कैसे बने मुख्यमंत्री?

Bharat Ek Soch : हरियाणा में विधानसभा चुनाव को लेकर सियासत तेज हो गई है। राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार में अपनी ताकत झोंक दी। राज्य की 90 विधानसभा सीटों पर 5 अक्टूबर को वोट डाले जाएंगे। हरियाणा का सत्ता चरित्र कैसा रहा है? आइए समझने की कोशिश करते हैं।
10:05 PM Sep 07, 2024 IST | Deepak Pandey

Bharat Ek Soch : पांच अक्टूबर को हरियाणा के लोग अपनी वोट की चोट से तय करेंगे कि अगले पांच साल तक उनके भाग्य से जुड़े अहम फैसले कौन लेगा? खुली आंखों से देखने पर ऐसा लग रहा है कि हरियाणा में सीधी लड़ाई कांग्रेस और बीजेपी के बीच है। लेकिन, क्या माइक्रोस्कोप से भी यही तस्वीर दिखेगी, ये एक बड़ा सवाल है। क्या बागी बड़े दलों का खेल नहीं बिगाड़ेंगे? क्या हरियाणा की राजनीति में दशकों तक वर्चस्व रखने वाले खानदान हाशिए पर पहुंच गए हैं? इतिहास गवाह है कि हरियाणा की धरती सबका इम्तिहान लेती है। यहां की सियासी पिच पर कोई भी और कभी भी फिसल सकता है। दिग्गज ताऊ देवीलाल को तीन बार हार का मुंह देखना पड़ा। जोड़तोड़ की राजनीति के वाइस चांसलर कहे जाने वाले चौधरी भजनलाल को एक रिटायर्ड अफसर ने चुनाव में हरा दिया। सुषमा स्वराज जैसी तेज-तर्रार नेता को भी करनाल में हार का सामना करना पड़ा। कभी भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा को भी रोहतक की जनता झटका दे चुकी है। हरियाणा के लोगों की पसंद और नापंसद को लेकर भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल काम रहा है।

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इस बार हरियाणा में दो करोड़ दो लाख से अधिक वोटर हैं, जिसमें से 94 लाख युवा वोटर हैं। जिनकी उम्र 18 साल से 39 साल के बीच है। युवा वोटरों में से बहुत से ऐसे भी होंगे, जिन्हें प्रदेश की राजनीति का मूल चरित्र पता नहीं होगा। हरियाणा की राजनीति में ऐसे-ऐसे प्रयोग हुए हैं, जिन्हें सुनकर ऐसा लगता है कि क्या सचमुच ऐसा हुआ होगा? हरियाणा की मिट्टी में परिवारवाद की राजनीति भी जमकर फली-फूली। ताऊ देवीलाल के पुत्र प्रेम की तुलना तो कभी-कभी महाभारत के धृतराष्ट्र से भी की जाती है। हरियाणा का सत्ता चरित्र कैसा रहा है? वहां के नेता किस सोच के साथ रिश्ता जोड़ते और तोड़ते रहे हैं? हरियाणा के नेताओं ने कुरुक्षेत्र की जमीन से दिए श्रीकृष्ण के श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान को किस तरह से ग्रहण किया?

कुरुक्षेत्र में सत्ता के लिए महाभारत हुई

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कभी हरियाणा को भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास की धुरी कहा जाता था। राखीगढ़ी में मिले करीब आठ हजार साल पुराने अवशेष बता रहे हैं कि कि वहां की मिट्टी पर मानव सभ्यता के विकास की बुलंद कहानी किस तरह तैयार हुई। सरस्वती नदी के किनारों से ज्ञान की धारा ने लोगों को किस तरह बेहतरी का रास्ता दिखाया। द्वापर युग में कुरुक्षेत्र से श्रीकृष्ण ने दुनिया को कर्म योग का ज्ञान दिया तो इसी कुरुक्षेत्र में सत्ता के लिए महाभारत हुई। हरियाणा का पानीपत तीन ऐतिहासिक लड़ाइयों का गवाह है। साल 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराया और भारत में मुगल वंश की स्थापना हुई। पानीपत की दूसरी लड़ाई साल 1556 में हुई। इसमें अकबर की सेना ने राजा हेमू को हरा दिया। साल 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुई। इसमें मराठों को हार का सामना करना पड़ा। अहमद शाह अब्दाली के वापस लौटने के बाद इस क्षेत्र पर सिखों का कब्जा हो गया। बाद में इस क्षेत्र में अंग्रेजों का दखल बढ़ा। साल 1857 की क्रांति का एक बड़ा केंद्र अंबाला छावनी भी रही।

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हरियाणा के दिग्गजों ने संविधान बनाने में अहम योगदान दिया

समय चक्र के साथ हरियाणा अपने तरीके से आगे बढ़ता रहा। आजादी की लड़ाई में हरियाणा के पंडित नेकीराम शर्मा और पंडित श्रीराम शर्मा ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी तैयार की। इस क्षेत्र के नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई भीतरखाने चल रही थी। वो साल 1923 का था। रोहतक के चौधरी लालचंद, हिसार के लाला जवाहर लाल भार्गव और चौधरी छोटूराम ने मिलकर यूनियनिस्ट पार्टी बनाई। उसी दौर में अलग हरियाणा राज्य का विचार भी सामने आया। शुरुआती दौर में कांग्रेस और यूनियनिस्ट पार्टी के बीच संघर्ष रहा। देश आजादी की ओर बढ़ रहा था। जब संविधान सभा बनी तो उसमें हरियाणा की दमदार मौजूदगी दिखी। ठाकुर दास भार्गव, चौधरी सूरजमल, लाला अचिंत राम, चौधरी रणबीर सिंह जैसे हरियाणा के लोगों ने कई गंभीर मुद्दों पर संविधान बनाने में अहम योगदान दिया। आजादी के बाद आज का हरियाणा पंजाब प्रांत का हिस्सा बना, लेकिन अलग हरियाणा राज्य की मांग दिनों-दिन तेज हो रही थी। आखिरकार भारत के नक्शे पर एक नवंबर 1966 को अलग राज्य के रूप में हरियाणा वजूद में आया। हरियाणा की राजनीति में कितने रंग हैं, इसका ट्रेलर हरियाणा के अलग राज्य के रूप में वजूद में आने के बाद पहले ही विधानसभा चुनाव में दिख गया। लेकिन, हरियाणा की राजनीति को बिना वहां के बड़े सियासी खानदानों को जाने बिना समझना मुश्किल है। इस लिस्ट में हुड्डा, चौटाला, बंसीलाल, भजनलाल और सर छोटूराम का खानदान शामिल है।

जानें हरियाणा की राजनीति में किसका रहा दखल?

हरियाणा की राजनीति पर हुड्डा, चौटाला, बंसी लाल, भजन लाल और बीरेंद्र सिंह परिवार का दखल रहा। इन पांच खानदानों की तीन पीढ़ियां हरियाणा के जन्म के बाद से वहां के सत्ता चरित्र की गवाह रही हैं। हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री बने भगवत दयाल शर्मा। तब हरियाणा कांग्रेस में कई गुट सक्रिय थे। साल 1967 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ, तब हरियाणा में विधानसभा की 81 सीटें थीं, जिसमें से 48 पर कांग्रेस उम्मीदवार जीते। भारतीय जनसंघ के खाते में 12 सीटें आईं। निर्दलीय की संख्या 16 थी। चुनाव के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में भगवत दयाल शर्मा ने शपथ ली। लेकिन, सत्ता के लिए खुलकर लंगड़ी मारने का खेल शुरू हो गया। हफ्ते भर में ही 12 कांग्रेसी विधायकों के पाला बदल लिया, जिससे भगवत सरकार गिर गई। निर्दलीय विधायकों ने भी एक पार्टी बना ली, नाम दिया गया संयुक्त मोर्चा। इस मोर्चे की अगुवाई कर रहे थे राव बीरेंद्र सिंह। संयुक्त मोर्चा की छतरी तले जोड़-तोड़ कर 48 विधायक जमा कर लिए गए। सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर राव बीरेंद्र सिंह ने शपथ ली। सत्ता के लिए एक-दूसरे को लंगड़ी मारने का ऐसा खेल चला, जिसने पूरे देश को सन्न कर दिया। उसी साल विधानसभा चुनाव में हसनपुर सीट से चुने गए थे गया लाल। लेकिन, सत्ता की चाह में गया लाल ने 9 घंटे के भीतर दो बार पाला बदला। इसके बाद भारतीय राजनीति के शब्दकोष में जुड़ा गया... आया राम, गया राम। राव बीरेंद्र सिंह की सरकार भी बहुत मुश्किल से 241 दिन ही चल पाई। ऐसे में उस दौर में हरियाणा के सत्ता चरित्र को समझना जरूरी है।

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9 महीने में भंग हुई थी पहली विधानसभा

हरियाणा की पहली विधानसभा सिर्फ 9 महीने में ही भंग हो गई। साल 1968 में दूसरे विधानसभा चुनाव की घंटी बजी। तब हरियाणा कांग्रेस में तीन गुट एक्टिव थे- एक भगवत दयाल शर्मा का, दूसरा देवी लाल का, तीसरा रामकृष्ण गुप्ता का। राव बीरेंद्र सिंह विशाल हरियाणा पार्टी नाम से राजनीतिक दल बना चुके थे। कांग्रेस की सबसे बड़ी चिंता पार्टी के भीतर गुटबाजी रोकने की थी। ऐसे में कांग्रेस ने हरियाणा में अपने कई वरिष्ठ नेताओं को चुनावी अखाड़े से दूर रखने का फैसला किया। इसमें भगवत दयाल शर्मा, देवीलाल, रामकृष्ण गुप्ता जैसे कई नेता शामिल थे। लेकिन, देवीलाल अपने बड़े बेटे ओमप्रकाश चौटाला को ऐलनाबाद से टिकट दिलाने में कामयाब रहे। चुनाव में सबने अपने तरीके से समीकरण बैठाने की कोशिश की। चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस को 48 सीटों पर कामयाबी मिली। लेकिन, मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए खींचतान ऐसी चली कि मामला दिल्ली पहुंच गया। ऐसे में गुलजारी लाल नंदा ने मुख्यमंत्री पद के लिए चौधरी बंसीलाल का नाम आगे बढ़ाया। कुछ घंटे बाद कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा की अध्यक्षता में कांग्रेस विधायक दल की बैठक हुई, जिसमें बंसीलाल के नाम पर फाइनल मुहर लग गई। कहा जाता है कि गुलजारी लाल नंदा को बंसीलाल अपना गुरु मानते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद भिवानी के बंसीलाल ने ऐसी राह पकड़ी, जिससे कुछ समय के लिए सूबे में जोड़तोड़ की राजनीति किनारे लग गई। प्रदेश को विकास और बदलाव के हाईवे पर ले जाने की कोशिश होने लगी।

बिना प्रेस किए कपड़े पहनते थे बंसीलाल

चौधरी बंसीलाल के बारे में एक और बात का जिक्र करना जरूरी है, वो मुख्यमंत्री बनने के बाद बिना प्रेस किए कपड़ों में दिख जाते थे। अगर कोई इस बारे में उनसे कुछ कहता तो सहज भाव से कह देते कि क्या बिना प्रेस किए कपड़े पहनने पर आप मुझे मुख्यमंत्री नहीं मानेंगे? बंसीलाल को जब पहली बार मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ, तब के हरियाणा के राज्यपाल वी.एन. चक्रवर्ती दिल्ली में थे और अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई। ऐसे में राज्यपाल ने बंसीलाल को दिल्ली में ही मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। बंसीलाल अपने तरीके से हरियाणा को चला रहे थे और उनके विरोधी अपने तरीके से बड़ा सियासी आसमान हासिल करने के लिए हाथ-पैर मार रहे थे।

दिल्ली की भी राजनीति में सक्रिय रहे बंसीलाल

समयचक्र आगे बढ़ा। देश में इमरजेंसी लगने के करीब 6 महीने बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर बंसीलाल दिल्ली की राजनीति में शिफ्ट हो गए। उन्हें रक्षा मंत्रालय जैसी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई। इस दौरान वो इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीब पहुंच गए। इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी के नसबंदी अभियान को आगे बढ़ाने में बंसीलाल की भूमिका को खलनायक की तरह देखी जाती है। दूसरी ओर, चौधरी देवी लाल की सियासी हसरतें कांग्रेस में रहते पूरी नहीं हो पा रही थीं। वैसे तो 1950 में ही उनकी पहचान एक जुझारू किसान नेता के तौर पर बन चुकी थी। साल 1952 से ही वो विधानसभा में थे। अलग हरियाणा राज्य बनने के बाद भी उन्हें बड़ा राजनीतिक आसमान नहीं मिला। ऐसे में 1971 में देवीलाल ने कांग्रेस से किनारा कर लिया और 1972 में हरियाणा चुनाव में देवीलाल ने कांग्रेस के दो दिग्गजों को निर्दलीय चुनौती दी, जिसमें से एक थे बंसीलाल और दूसरे भजनलाल। लेकिन, वो उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इमरजेंसी के बाद देवीलाल जनता पार्टी में शामिल हो गए। पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ हवा चल रही थी। हरियाणा में चुनाव हुए तो जनता पार्टी ने सूबे की 90 विधानसभा सीटों में से 75 सीटें जीत ली। चौधरी देवीलाल ने पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनकी सरकार में एक 25 साल की लड़की ने भी बतौर कैबिनेट मंत्री शपथ ली- वो थीं सुषमा स्वराज। देवीलाल धुन के पक्के थे, जो एक बार ठान लिया पूरा किए बिना चैन से नहीं बैठते थे। उन्हें एक शख्स से हिसाब बराबर करना था और वो थे बंसीलाल।

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दांव-पेंच और तिकड़म से भरी है हरियाणा की राजनीति

हरियाणा की राजनीति दांव-पेंच और तिकड़म से भरी हुई है। चौधरी देवीलाल पहली बार सिर्फ 737 दिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे। उनके खिलाफ नाराजगी और आक्रोश जनता पार्टी के भीतर भी बढ़ने लगा। शायद, उनकी तुनकमिजाजी उनके करीबियों को पसंद नहीं आती थी। कहा जाता है कि चौधरी देवीलाल के खिलाफ असंतोष की चिंगारी को पीछे से हवा देने का काम एक ऐसा शख्स कर रहा था, जिसका जन्म आज के पाकिस्तान के बहावलपुर में हुआ था। वो हरियाणा के आदमपुर में कपड़ा और घी का कारोबार करता था। राजनीति में भी उस शख्स का रसूख तेजी से बढ़ा। उसे जोड़-तोड़ की राजनीति में पीएचडी माना जाता है।

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