हरियाणा में विरासत की सियासत के बीच कैसे चली सत्ता के लिए तिकड़मबाजी?
Bharat Ek Soch : हरियाणा में किसकी हवा चल रही है? इसे भांपने और मापने की कोशिश राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े रणनीतिकार और पॉलिटिकल पंडित कर रहे हैं। लेकिन, इतिहास गवाह रहा है कि हरियाणा के मिजाज को समझना आसान काम नहीं है। बड़े-बड़े गच्चा खा चुके हैं। भारत के नक्शे पर जब नए राज्य के रूप में हरियाणा का जन्म हुआ तो वहां की राजनीति में हेर-फेर, दल-बदल, विश्वासघात का किस तरह से खुला खेल हुआ। अपने ही अपनों को लंगड़ी मारने में कितना एक्सपर्ट निकले। हरियाणा की सियासी जमीन पर पले-बढ़े कई नेताओं ने नई पार्टियां बनाने में भी देर नहीं लगाईं और अपने नफा-नुकसान का हिसाब लगाते हुए बड़ी पार्टियों के साथ विलय का फैसला भी किया।
हरियाणा की मिट्टी ने भगवत दयाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनते भी देखा और उन्हें अपनों द्वारा लंगड़ी मारकर गिराते भी तो राव बीरेंद्र सिंह के दौर में दलबदल के अजब-गजब रिकॉर्ड बने। बीडी शर्मा और देवीलाल के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी की लड़ाई में बंसीलाल का नंबर लग गया। चौधरी देवीलाल की मुख्यमंत्री वाली कुर्सी उनके ही एक मंत्री भजनलाल ने खिसका दी। ये सब तो सिर्फ हरियाणा की राजनीति का ट्रेलर भर है। असली खेल शुरू हुआ भजनलाल के मुख्यमंत्री बनने और देवीलाल के दिल्ली की राजनीति में शिफ्ट होने के बाद। आइए जानते हैं कि 1980 के दशक की शुरुआत से हरियाणा की राजनीति किस तरह आगे बढ़ी? हरियाणा के नेता दिल्ली में कौन सा दांव-पेंच चल रहे थे?
भजनलाल ने देवीलाल की सीएम की कुर्सी खिसका दी थी
28 जून, 1979 को चौधरी भजनलाल ने हरियाणा के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। आज के पाकिस्तान के बहावलपुर में जन्मे भजनलाल हरियाणा के आदमपुर में कपड़ा और घी का कारोबार करते थे। कहा जाता है कि भजनलाल में एक गजब का हुनर था, वो तुरंत समझ जाते थे कि सामने वाले को किस चीज की जरूरत है। अपने इसी हुनर के दम पर उन्होंने चौधरी देवीलाल जैसे दिग्गज की मुख्यमंत्री की कुर्सी खिसका दी थी। अपने आठ साल के पॉलिटिकल करियर में ही वो हरियाणा जैसे प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थे।
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हिसाब लगाने में आगे थे भजनलाल
साल 1980 में जब केंद्र में प्रचंड बहुमत से इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई तो भजनलाल हिसाब लगाने लगे कि अब आगे क्या? जनता पार्टी का जहाज उन्हें डूबता दिखा, वो भी जनता पार्टी से ही जुड़े थे। ऐसे में बतौर मुख्यमंत्री उनकी एक मुलाकात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से हुई। बंद कमरे में पता नहीं क्या बात हुई। लेकिन, जब भजनलाल 40 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हुए तो लोगों की समझ में आया राजनीति में कुछ भी नामुमकिन नहीं है। भारतीय राजनीति के इतिहास का सबसे बड़ा दलबदल भजनलाल की अगुवाई में हुआ।
दलबदल की राजनीति के वाइस चांसलर माने जाते थे भजनलाल
भारतीय राजनीति में भजनलाल को खरीद-फरोख्त और दल-बदल की राजनीति के वाइस चांसलर के तौर पर देखा जाता है। जनता पार्टी में बिखराव के बाद उसके घटक दलों के नेता अपने लिए नया रास्ता तलाशने लगे। सितंबर 1979 में चौधरी चरण सिंह ने लोकदल नाम से पार्टी बनाई, इसी की छतरी तले देवीलाल भी खड़े हो गए। नए सियासी समीकरणों पर काम शुरू हुआ। कांग्रेस को टक्कर देने के लिए नई सोशल इंजीनियरिंग अजगर यानी अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत समुदाय को साथ जोड़ने का काम शुरू हुआ। वो साल था 1982 का, हरियाणा में विधानसभा चुनाव की घंटी बजी। लोकदल और बीजेपी साथ मिलकर चुनावी अखाड़े में उतरे। इस गठबंधन को 37 सीटें मिलीं। वहीं, कांग्रेस के टिकट से 36 उम्मीदवार विधानसभा पहुंचने में कामयाब रहे। जबकि 90 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 46 था। ऐसे में आगे का सारा दारोमदार निर्दलीय विधायकों पर था।
हरियाणा में लंगड़ी मारने की राजनीति
देवीलाल ने गठबंधन के 37 विधायकों के साथ 8 निर्दलीयों का समर्थन पत्र भी राज्यपाल को सौंपा। तब के राज्यपाल जीडी तपासे ने देवीलाल से समर्थक विधायकों की परेड कराने के लिए कहा। अगले दिन राज्यपाल दिल्ली पहुंच गए और हरियाणा भवन में ही भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। अगले दिन गुस्से से लाल देवीलाल सीधे राजभवन पहुंचे। उस दौर के अखबारों में छपा कि देवीलाल ने राज्यपाल तपासे को तमाचा तक जड़ दिया था। हरियाणा में जोड़तोड़ और एक-दूसरे को लंगड़ी मारने की राजनीति चलती रही। देवीलाल के बड़े बेटे ओमप्रकाश चौटाला भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। दूसरी ओर, केंद्र की बीपी सिंह की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार में चौधरी देवीलाल उप-प्रधानमंत्री बने। लेकिन, उनकी किसी से लंबे समय तक पटी नहीं। उस दौर में चौधरी देवीलाल की जनसभाओं में नारा लगता था- ताऊ पूरा तोलेगा, लाल किला से बोलेगा। लेकिन, खुद देवीलाल कहा करते थे-ताऊ तो सिर्फ तोलेगा, लाल किला ये यही बोलेगा। उनका इशारा विश्वनाथ प्रताप सिंह की ओर होता था।
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1987 से 1991 के बीच रहा उथल-पुथल
उप प्रधानमंत्री जैसी कुर्सी पर पहुंचने के बाद देवीलाल का कद हरियाणा की राजनीति में बहुत ऊंचा हो गया। इस रेस में कहीं-न-कहीं हुड्डा परिवार पिछड़ रहा था। हरियाणा के इतिहास में 1987 से 1991 के बीच का दौर सबसे अधिक उथल-पुथल वाला रहा। उस दौर में ओमप्रकाश चौटाला तो एक बार सिर्फ 5 दिन मुख्यमंत्री रहे, दूसरी बार 14 दिन ही रहे। साल 1991 के बाद वहां की राजनीति में थोड़ी स्थिरता तो आई। लेकिन, तीन बड़े खानदानों के बीच ही हरियाणा की सत्ता परिक्रमा कर रही थी- चौटाला परिवार, भजनलाल परिवार और बंसीलाल परिवार।
2005 में बनी थी कांग्रेस की सरकार
हरियाणा के सियासी अखाड़े में कांग्रेस थी, बीजेपी थी। चौधरी बंसीलाल की हरियाणा विकास पार्टी थी। चौटाला परिवार की इंडियन नेशनल लोकदल थी। साल 1999 में INLD एनडीए के जहाज पर सवार हो गई। हरियाणा में बीजेपी ने चौटाला सरकार में शामिल होने की जगह बाहर से समर्थन देना बेहतर समझा। 2 मार्च, 2000 को ओमप्रकाश चौटाला ने कुरुक्षेत्र की संस्कृत में शपथ लेकर सबको चौंका दिया। लेकिन, चौटाला के दौर में हरियाणा जिस रास्ते आगे बढ़ रहा था, उसमें कांग्रेस को अपने लिए भरपूर संभावना दिखने लगी। 2005 में विधानसभा चुनाव की घंटी बजी। हरियाणा में हवा चौटाला राज के खिलाफ बह रही थी। पॉलिटिकल पंडित भविष्यवाणी करने लगे कि हैं कि 2005 का हरियाणा चुनाव किसी को जीताने से अधिक किसी को हराने के लिए है, हुआ भी वही। चौटाला की INLD का सूपड़ा साफ हो गया। कांग्रेस की हरियाणा में प्रचंड बहुमत से सत्ता में वापसी हुई और सीएम की कुर्सी पर बैठे भूपेंद्र सिंह हुड्डा।
2014 में बीजेपी ने सबको पछाड़ा
हरियाणा को भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अपने तरीके से चलाया। उनके दौर के विकास काम और विवादों को समयचक्र के हिसाब से अलग-अलग चश्मे से देखने की कोशिश होती रही है। 2014 में पूरे देश में मोदी की सुनामी चल रही थी। उस सुनामी का असर हरियाणा में भी दिखा। वहां की 10 लोकसभा सीटों में से 7 पर कमल खिल गया। भूपेंद्र सिंह हुड्डा 10 साल से हरियाणा की कमान संभाले हुए थे। वहां की राजनीति में शून्यता थी। दरअसल, भजनलाल का निधन हो चुका था, उनकी पार्टी बिखर चुकी थी। भर्ती घोटाले में ओमप्रकाश चौटाला जेल में थे। ऐसे में बीजेपी को अपने लिए बेहिसाब संभावना दिखी। 2014 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सबको पीछे छोड़ दिया। सूबे की 90 विधानसभा सीटों में से 47 पर कमल खिला, ऐसा पहली बार हुआ। बीजेपी ने हरियाणा की कमान मनोहर लाल खट्टर को सौंपने का फैसला किया। पांच साल बाद यानी 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव हुए बीजेपी का ग्राफ नीचे की ओर गया। सीटें कम हुईं, ऐसे में चौटाला परिवार की चौथी पीढ़ी के दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी यानी जेजेपी से गठबंधन कर सरकार बनानी पड़ी।
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लोकतंत्र में आखिरी फैसला जनता का
हरियाणा में फिर चुनावी रण सजा हुआ है। बीजेपी ने इस साल मार्च में मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर नायब सिंह सैनी को बैठा दिया। मनोहर लाल अब मोदी सरकार में मंत्री हैं। कांग्रेस के दिग्गजों को लग रहा है कि अबकी बार हवा उनके पक्ष में है। हरियाणा के मौजूदा सियासी हालात की तुलना कभी 2005 से की जा रही है, तो कभी 2014 से, जिसमें एंटी-इनकंबेंसी बड़ा फैक्टर रही। लेकिन, एक सच ये भी है कि राजनीति ट्रेंड से नहीं चलती है। गणित के फॉर्मूलों से चुनाव नहीं जीता जाता। चुनावी हवा का रुख तय करने में केमेस्ट्री अहम किरदार निभाती है। कहा जाता है कि निराशावादी हवा के बारे में भी शिकायत करता है, आशावादी हवा के रुख को बदलने की उम्मीद करता है और एक लीडर हवा के रुख के हिसाब से बोट के पाल एडजस्ट कर लेता है। हरियाणा में कौन क्या कर रहा है और उसे मतदाता किस तरह से देख रहा है, इस पर ही सबकुछ निर्भर करेगा। क्योंकि, लोकतंत्र में आखिरी फैसला जनता का होता है? हरियाणा सियासी अखाड़े में खड़े नेताओं के चाल, चरित्र और चेहरे को वहां के लोग किस तरह से देख रहे हैं, इसका पता 8 अक्टूबर को चुनावी नतीजों के आने के साथ चलेगा।