'महाराष्ट्र में ललकार' : सियासी बिसात पर कौन राजा, कौन प्यादा?
Bharat Ek Soch : महाराष्ट्र की सियासी शतरंज पर बहुत सावधानी से गोटियां चली जा रही हैं। कोई राजा की भूमिका में है, कोई रानी की, कोई वजीर की, कोई हाथी की, कोई ऊंट की, कोई घोड़ा की, कोई सिपाही की। जिस तरह हर प्यादे की अपनी USP होती है। उसी तरह चुनावी राजनीति में भी हर पार्टी के भीतर मौजूद नेताओं की अपनी USP होती है, जो मिल जाएं तो एक और एक मिलकर ग्यारह बन जाते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएं तो जीती बाजी भी हाथ से निकले देर नहीं लगती। अबकी बार महाराष्ट्र में किस तरह से सत्ता समीकरण बनेंगे। इसे लेकर हर छोटा-बड़ा नेता परेशान है। चाहे वो 83 साल के शरद पवार हों या 65 साल के अजित पवार, 64 साल के उद्धव ठाकरे हों या 60 साल के एकनाथ शिंदे, चाहे 54 साल के देवेंद्र फडणवीस हों या 61 साल के नाना पटोले। सबकी अपनी-अपनी चिंता और चुनौतियों में उलझे हुए हैं।
मौटे तौर पर महाराष्ट्र में दो बड़े गठबंधन आमने-सामने हैं। एक महाविकास अघाड़ी- जिसमें एक-दूसरे को आंख दिखाने से दबाव बनाने तक का खेल जारी है। इसे प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिए अधिक सीटें हासिल करने की जुगत के तौर पर देखा जा सकता है। दूसरा महायुति यहां भी अधिक सीटों के लिए घटक दलों में भीतरखाने खींचतान जारी है। कुछ ऐसे भी महारथी तैयार हैं- जो भले ही खुद चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन बड़े दलों के उम्मीदवारों का सत्ता समीकरण बनाने और बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे में महाराष्ट्र विधानसभा की सभी 288 सीटों महारथी एक-दूसरे को अपनी मोर्चाबंदी के हिसाब से ललकारते दिखेंगे। एक-दूसरे पर तीखे शब्द वाण छोड़े जाएंगे। एक-दूसरे को धोखेबाज, एहसान फरामोश और खुद को सच्चा बताने की कोशिश होगी। बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए ऐसे मुद्दों को धार देने की कोशिश होगी- जिससे जात-पात पर वोटों का ध्रुवीकरण हो सके। लेकिन, क्या महाराष्ट्र की सियासत हमेशा से ऐसी ही रही है- वहां की राजनीति में वफादारी और विश्वासघात दोनों साथ-साथ चले हैं। सत्ता के लिए एक-दूसरे को निपटाने का खेल चला? मराठी मानुष के नाम पर वोटों की गोलबंदी हुई, सत्ता के लिए नए रिश्ते बने और बिगड़े। इसी महाराष्ट्र की जमीन पर शिवसेना खड़ी हुई, कभी इसी महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ने रिमोट से सरकार चलाई। इसी महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री आलाकमान के इशारे पर बदले गए, कभी इसी महाराष्ट्र में विवादों के बवंडर में कितनों की मुख्यमंत्री वाली कुर्सी गई, इसी महाराष्ट्र में दल पर दबदबे के लिए शीत युद्ध और गृहयुद्ध दोनों चला?
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यशवंत राव चव्हाण बने थे महाराष्ट्र के पहले सीएम
ये महाराष्ट्र की मिट्टी का कमाल है, जिसमें छत्रपति शिवाजी ताकतवर मुगलिया सल्तनत को चुनौती देते हैं। मराठा साम्राज्य का परचम लिए पेशवा पंजाब तक पहुंच जाते हैं। महाराष्ट्र की मिट्टी में पले-बढ़े युवा ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देते हैं और देश की आजादी तक संघर्ष जारी रहता है। इसी महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने गणपति को राष्ट्रवाद का देवता बना दिया। इसी महाराष्ट्र की जमीन पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बनी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा भी लगी। बाल गंगाधर तिलक का राष्ट्रवाद हो या फिर महात्मा गांधी का सत्याग्रह, विनायक दामोदर सावरकर का हिंदुत्व हो या विनोबा भावे का रास्ता, महात्मा ज्योतिबा फुले का समाज सुधार हो या डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का रास्ता, सबका गवाह महाराष्ट्र की मिट्टी और अरब सागर की लहरें रही हैं। भारत के लोगों का रेल से पहला परिचय इसी मुंबई शहर ने कराया, समंदर के रास्ते दुनिया के जुड़ने का रास्ता रहा है महाराष्ट्र को छूता अरब सागर का किनारा, आजादी के बाद भाषा के आधार पर एक मई 1960 को बॉम्बे प्रांत से निकल कर महाराष्ट्र अलग राज्य बना। पहले मुख्यमंत्री बने यशवंत राव चव्हाण। आखिर महाराष्ट्र एक अलग राज्य के रूप में वजूद में कैसे आया और पिछले 64 साल से वहां की राजनीति पर किन परिवारों का दबदबा रहा है?
नौकरी छोड़कर राजनीति में आए कई नेता
मुंबई को सपनों का शहर कहा जाता है। जहां देश के ज्यादातर दिग्गज कारोबारी रहते हैं। कारोबार वही कर सकता है, जिसमें रिस्क लेने की क्षमता हो। मुंबई की आबोहवा हमेशा से लोगों को रिस्क लेने और कुछ नया करने के लिए ऊर्जा देती रहती है। ये मुंबई की आबोहवा का असर था कि कभी मोरारजी देसाई मोटी तनख्वाह वाली अफसरी छोड़ कर राजनीति में आए और देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे अच्छी खासी नौकरी छोड़कर मराठी लोगों के हक-हकूक की आवाज बुलंद करने के लिए राजनीति में उतरे। शरद पवार तो छात्र राजनीति से होते हुए सिर्फ 38 साल की उम्र में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गए। सुशील कुमार शिंदे पुलिस में सब-इंस्पेक्टर की नौकरी छोड़ देश के गृह मंत्री जैसे असरदार पद पर पहुंचे। इस बार महाराष्ट्र चुनाव में कई सियासी परिवारों के सामने करो या मरो जैसी स्थिति है। वहां की सियासत के दो सबसे असरदार परिवार तो असली और नकली की लड़ाई में उलझे हुए हैं। जिस शरद पवार को महाराष्ट्र की राजनीति का चाणक्य कहा जाता है- उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में दो फाड़ हो चुका है और उनके भतीजे अजित पवार अपने गुट को असली NCP बता रहे हैं। इसी तरह कभी बाल ठाकरे के पीछे साया की तरह खड़ा रहने वाले एकनाथ शिंदे सीधे उद्धव ठाकरे को ललकार रहे हैं। अब उद्धव ठाकरे के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद को असली और एकनाथ शिंदे को नकली साबित करने की है। आज की तारीख में शिवसेना दो गुटों में बंटी है? लेकिन, इसकी नौबत कैसे आईं, आखिर किस सोच के साथ बाल ठाकरे ने कार्टूनिस्ट की नौकरी छोड़कर शिवसेना की छतरी तानी थी? राजनीतिक जमीन पर शिवसेना ने किस तरह से पकड़ बनाई? महाराष्ट्र विधानसभा में पहली सीट पाने के लिए शिवसेना और बाल ठाकरे को कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी?
बाला ठाकरे ने खाई थी ये तीन कसम
कहा जाता है कि बाल ठाकरे ने तीन कसम खाई थी। पहली, कभी आत्मकथा नहीं लिखेंगे। दूसरी, कभी खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे और कभी कोई सरकारी पद नहीं लेंगे। उन्होंने पूरी जिंदगी अपनी तीनों कसम नहीं तोड़ी। सरकार से बाहर रहते सरकार पर कंट्रोल रखना उनकी राजनीति की USP थी, अपने शिवसैनिकों के दम पर वो सरकार के एक तरह से समानांतर सिस्टम चलाते रहे। वो अक्सर कहा करते थे 80 फीसदी समाज सेवा, 20 फीसदी राजनीति। शायद, इसी फलसफे ने उन्हें महाराष्ट्र पॉलिटिक्स में फौलाद की तरह स्थापित किया। बाल ठाकरे ने हमेशा अपनी शर्तों पर राजनीति की। उन्होंने पार्षद, विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन खुद कभी सरकारी पद पर नहीं रहे। महाराष्ट्र के सियासी अखाड़े के दूसरे बड़े खिलाड़ी हैं- शरद पवार, जिन्होंने राजनीति का ककहरा परिवार में सिखा। उनकी मां शारदाबाई किसान-श्रमिक पार्टी और कांग्रेस से जुड़ी थीं, जो साल 1938 में पुणे स्थानीय बोर्ड के लिए निर्विरोध चुनी गई थीं। शरद पवार छात्र राजनीति से होते हुए पहले विधानसभा पहुंचे। कुछ साल में ही मंत्री बने। इसके बाद गोटियां इस तरह चली कि 38 साल की उम्र में ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गए और महाराष्ट्र की राजनीति के बड़े-बड़े दिग्गज देखते रह गए ।
पहली बार सिर्फ 580 दिन के लिए सीएम बने थे शरद पवार
पहली बार शरद पवार सिर्फ 580 दिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रह पाए। उनकी सरकार में शंकरराव चव्हाण भी मंत्री बने, जो पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके थे। तब उन्हें जेल, सिंचाई और उद्योग मंत्रालय सौंपा गया था। शरद पवार की सरकार में सुशील कुमार शिंदे ने भी बतौर कैबिनेट मंत्री शपथ ली थी। शरद पवार की सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा, ये महाराष्ट्र के वजूद में आने के बाद पहला राष्ट्रपति शासन था- जो 112 दिन रहा। राष्ट्रपति शासन में ही विधानसभा चुनाव हुए, राज्य की 288 सीटों में से 186 कांग्रेस के खाते में आई। तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीबियों में से एक हुआ करते थे- ए.आर. अंतुले। माना जाता है कि महाराष्ट्र के मराठा नेताओं को कंट्रोल में करने लिए मिसेज गांधी ने ए.आर अंतुले को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया। कुछ महीनों में ही उनकी सीएम वाली कुर्सी विवादों के बवंडर में फंस गई और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद कुछ वर्षों तक महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बदलने का खेल चला।
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कैसे शरद पवार की दोबारा कांग्रेस में हुई थी वापसी?
शरद पवार ने कभी विचारधारा या आदर्शवाद की मोटी चादर नहीं ओढ़ी। कहा जाता है कि उनके हाथों में जितनी गोटियां दिखती है, उससे ज्यादा वो आस्तीन में छिपा कर रखते हैं। हालात के मुताबिक गोटियां निकालने और पासा फेंकने में उन्हें महारत हासिल है। उनकी राजनीति ऐसी है कि जिसमें रिश्ता जोड़ने और तोड़ने के खिड़की-दरवाजे हमेशा खुला रहते हैं। 1980 में सत्ता से बेदखल होने के बाद शरद पवार एक तरह से राजनीति में किनारे लग चुके थे। तमाम कोशिशों के बाद भी वो कुछ खास नहीं कर पा रहे थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सरकार और संगठन पर राजीव गांधी का कंट्रोल हो गया। उधर, शिवसेना का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। बाल ठाकरे के एक इशारे पर मुंबई थम जाती और चलने लगती। कहा जाता है कि राजीव गांधी ने शरद पवार को कांग्रेस में वापसी का प्रस्ताव दिया। शायद राजनीति में किनारे खड़े पवार को भी इसका इंतजार रहा होगा। कई कांग्रेसियों ने न चाहने के बाद भी पवार की कांग्रेस में दोबारा एंट्री हो गई। इसके कुछ महीने बाद एसबी चव्हाण मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर राजीव सरकार में मंत्री बनाए गए, उनकी जगह शरद पवार को महाराष्ट्र की कमान सौंपी गई। दूसरी ओर, देश की राजनीति में हिंदू-मुसलमान के नाम पर ध्रुवीकरण की कोशिशें चल रही थी। अयोध्या में राम मंदिर को लेकर आंदोलन तेज होता जा रहा था। मुंबई का मिजाज तेजी बदल रहा था, जिसमें हर कोई एक-दूसरे को अपनी मोर्चाबंदी के हिसाब से ललकार रहा था।