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लोकतंत्र में वोटर किस तरह के नेताओं को कर रहे हैं पसंद?

Bharat Ek Soch : महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आ गए हैं। एक बार फिर महाराष्ट्र चुनाव परिणाम ने सबको चौंका दिया। अब सबसे बड़ा सवाल उठता है कि लोकतंत्र में वोटर किस तरह के नेताओं को पसंद कर रहे हैं?
10:52 PM Nov 23, 2024 IST | Deepak Pandey
लोकतंत्र में वोटर किस तरह के नेताओं को कर रहे हैं पसंद
Bharat Ek Soch

Bharat Ek Soch : महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव का नतीजा पूरी दुनिया के सामने है। नतीजों के हिसाब से तर्क गढ़ने का काम जारी है। लेकिन, इन दोनों राज्यों के नतीजे क्या इशारा कर रहे हैं ? इनसे किस तरह का संदेश निकल रहा है। आखिर महाराष्ट्र में जीत किसकी है- बीजेपी की, शिंदे की शिवसेना की, अजित पवार की एनसीपी की। इसी तरह झारखंड में जेएमएम के हेमंत सोरेन की, उनके साथ खड़े इंडिया गठबंधन साझीदारों की। लोगों ने अपनी वोट की ताकत का इस्तेमाल किस सोच के साथ किया? कहीं ऐसा तो नहीं कि महाराष्ट्र और झारखंड में लोगों के सामने सिर्फ एक ही मुद्दा था- वोट के बदले क्या मिलेगा?

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लोगों ने वोट उसी पक्ष को दिया, जिसकी जीत की संभावना अधिक थी, जो गठबंधन लोगों के खाते में कुछ-न-कुछ डाल रहा था। लोग लेनदेन की इस व्यवस्था पर ब्रेक नहीं चाहते थे। चाहे महिलाएं हों या फिर युवा, किसान हों या मुफ्त अनाज पाने वाले लाभार्थी। हमारे चुनावी लोकतंत्र में विचारधारा की जगह लेनदेन ले चुका है। ये लेन-देन वोटर और सियासी दलों के बीच है, जिसमें सत्ताधारी पार्टी पलड़ा भारी रहता है। वोटरों को अपने पाले में लाने के लिए सत्ताधारी पार्टी खजाने का मुंह खोल देती है- चाहे भविष्य में अंजाम जो भी हो। चुनावी लोकतंत्र को रुपया किस तरह प्रभावित कर रहा है। किसी भी राजनीतिक दल को सत्ता में लाने या बेदखल करने में रेवड़ी कल्चर किस तरह असर डाल रहा है? किसी भी चुनाव में सबसे बड़ा महिला और युवा सबसे बड़ा वोटबैंक हैं- ये दोनों वर्ग किस आधार पर वोट कर रहे हैं? जो जीता वही सिकंदर, बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया में।

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महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों ने हैरान कर दिया

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महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों ने महायुति गठबंधन के रणनीतिकारों को भी हैरान कर दिया है। उम्मीद से ज्यादा सीटें बीजेपी, शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी को मिली हैं। तीन महीने में ही महायुति गठबंधन ने पूरी तरह से बाजी पलट दी। लेकिन, मुख्यमंत्री कौन होगा? इसे लेकर सस्पेंस बरकरार है। ऐसे में तीन तरह की तस्वीर बनती दिख रही है। पहली, बीजेपी का मुख्यमंत्री बने, दूसरा- एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री पद पर अड़े रहें। अब सवाल उठता है कि क्या इसके लिए देवेंद्र फडणवीस तैयार हो जाएंगे। तीसरी तस्वीर, बेहतर प्रदर्शन के बाद भी अजित पवार को क्या मिलेगा? महाराष्ट्र की सियासी पिक्चर साफ-साफ इशारा कर रही है कि महायुति गठबंधन में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है और शिवसेना-एनसीपी के पास सौदेबाजी के लिए अधिक विकल्प नहीं बचा है। बीजेपी अपने किसी एक गठबंधन साझीदार को माइनस कर भी सरकार बना सकती है। इसलिए, चाहे एकनाथ शिंदे हों या अजित पवार दोनों के सामने बीजेपी की शर्तों पर चलने की मजबूरी होगी। ऐसे में सबसे पहले समझते हैं कि महाराष्ट्र में महायुति ने प्रचंड बहुमत कैसे हासिल किया?

लाडली बहना योजना का मिला फायदा

महायुति सरकार ने लाडली बहना योजना शुरू की, जिसके तरह महिलाओं को हर महीने डेढ़ हजार रुपये मिल रहे हैं। चुनाव से पहले ही साढ़े सात हजार रुपये महिलाओं के खाते में डाले गए । ऐसे में दो करोड़ से अधिक महिलाओं को महायुति सरकार की नई योजना का सीधा फायदा मिला। चुनाव प्रचार के दौरान लाडली बहना योजना की रकम को बढ़ाकर 2100 रुपये प्रतिमाह करने का वादा किया गया। ऐसे में शायद महाराष्ट्र की महिलाओं को लगा कि अगर महायुति सत्ता में बनी रही तो उनके खाते में हर महीने 1500 रुपये आना जारी रहेगा ही। वादे के हिसाब से रकम बढ़ाने का दबाव भी रहेगा। इसी तरह युवाओं को भी इस बात से अधिक फर्क नहीं पड़ रहा है कि सत्ता कौन संभालेगा? भविष्य के लिए सियासी पार्टियों का विजन क्या है? हर कोई अपने वोट के बदले तुरंत फायदा चाहता है? ऐसे में सत्ताधारी पार्टी का पलड़ा भारी रहता है- वो वोटरों को भरोसा दिलाने में कामयाब रहती है कि अभी इतना दे रहे हैं, दोबारा सत्ता में आए तो जो मिल रहा है- उसमें कुछ जुड़ेगा भी। ऐसे में युवाओं के एंगल से समझने की कोशिश करते हैं कि उनके वोटिंग का आधार क्या रहा? महाविकास अघाड़ी के चार हजार रुपये महीना बेरोजगारी भत्ता देने जैसे वादे के बाद भी युवाओं ने खारिज क्यों किया?

चुनाव में पैसा, बड़ा तंत्र और नैरेटिव की अहम भूमिका

आज के चुनावी नतीजों से एक और संदेश निकल रहा है। अब चुनावी व्यवस्था पूरी तरह से दो ध्रुवीय होती जा रही है। छोटे दलों या स्वतंत्र उम्मीदवारों के लिए चुनाव जीतना मुश्किल होता जा रहा है। महाराष्ट्र में महायुति और महाविकास अघाड़ी के बीच सीधा मुकाबला रहा। झारखंड में एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच डायरेक्ट फाइट रही। मतलब, चुनाव में पैसा, बड़ा तंत्र और नैरेटिव तीनों अहम भूमिका निभा रहे हैं। महाराष्ट्र में अगर बीजेपी ने कटेंगे तो बटेंगे, एक रहेंगे सेफ रहेंगे नैरेटिव आगे बढ़ाया तो झारखंड में हेमंत सोरेन ने जेल का बदला वोट से की जोरशोर से बात की। हाल के चुनावी नतीजों से एक और बात सामने निकल रही है कि बार-बार स्टैंड और पार्टी बदलने वाले नेताओं को भी पब्लिक खारिज कर रही है।

लोगों को फाइटर नेता आ रहे पसंद

हाल के वर्षों में ऐसे नेताओं का स्ट्राइक रेट गिरा है। साथ ही लोगों को विरासत की सियासत करने वाले नेता ही नहीं, फाइटर पसंद आ रहे हैं। बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस भी ऐसे ही एक नेता हैं। एकनाथ शिंदे ने भी लड़ कर शिवसेना हासिल की। अजित पवार ने चाचा शरद पवार से लड़कर अपनी एनसीपी की राजनीतिक जमीन मजबूत की। झारखंड में भी 24 साल की परंपरा टूटी। हेमंत सोरेन की दोबारा सत्ता में वापसी हो रही है। भले ही हेमंत सोरेन विरासत की सियासत से उभरे हों, लेकिन पिछले हाल के महीनों में उनकी छवि एक फाइटर की तरह उभरी है।

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हरियाणा चुनाव परिणाम ने पूरे देश को चौंकाया

हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भी पूरे देश को चौंकाया। माना जा रहा था कि 10 साल से सत्ता संभाल रही बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी है। कांग्रेस रणनीतिकार अपनी जीत को लेकर कॉन्फिडेंस थे। हरियाणा की 36 बिरादरी के साथ की बात कर रहे थे। बड़े-बड़े लुभावने वादे किए गए। लेकिन, कांग्रेस सत्ता से दूर थी। वहीं, सत्ताधारी बीजेपी के वादों पर लोगों ने भरोसा किया और हरियाणा में लगातार तीसरी बार बीजेपी सत्ता में आई। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजों को थोड़ा अलग लेंस से देखना होगा। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद वहां पहली बार चुनाव हुए। बीजेपी को अपने विकास कार्यों पर पूरा भरोसा था, लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला टोपी उल्टी कर लोगों से वोट मांगने लगे। कश्मीर के लोगों को कट्टरपंथियों की जगह नेशनल कॉन्फ्रेंस की नुमाइंदगी में अपना मुस्तकबिल अधिक चमकदार दिखा। लेकिन, इस बात पर भी गौर करना होगा कि विपक्ष जिन मुद्दों के साथ चुनावी अखाड़े में उतर रहा है- क्या वो आउटडेटेड हो चुके हैं? मसलन, आरक्षण के नाम पर चुनावी लहर क्यों नहीं पैदा हो रही है। संविधान में बदलाव, किसानों का मुद्दा क्यों नहीं चला? हरियाणा में अग्निवीर के मुद्दे पर विपक्ष क्यों नहीं लहर बना पाया? क्या गिव एंड टेक पॉलिटिक्स के दौर में विचारधारा का मुद्दा हाशिए पर पहुंच गया है या फिर विपक्ष के भीतर फायर खत्म हो चुका है?

विचारधारा पर भारी पड़ी गिव एंड टेक पॉलिटिक्स 

गिव एंड टेक पॉलिटिक्स चुनाव में विचारधारा पर हमेशा भारी पड़ी है। दक्षिण भारत से उत्तर भारत तक ऐसी राजनीति का गवाह रहा है। गरीबों को वोट बैंक के तौर पर मुखर तरीके से 1970 के दशक में इस्तेमाल किया गया। तब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थीं इंदिरा गांधी। उस दौर में सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों की काट के तौर पर इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया। लोगों के करीब दिखने के लिए उनकी सरकार पहले ही राजाओं के प्रिवी पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे बड़े फैसले ले चुकी थीं और देश में गरीबों की सबसे बड़ी खैरख्वाह के तौर पर उभरीं। आम आदमी पार्टी की राजनीति ने गिव एंड टेक पॉलिटिक्स को विस्तार दिया। बीजेपी भी इसी रास्ते आगे बढ़ी और दूसरी पार्टियों को भी सत्ता हासिल करने का यही रास्ता सबसे आसान दिखा।

लेनदेन मॉडल का ट्रेंड बढ़ा

पॉलिटिकल साइंस की मोटी-मोटी किताबों में सहभागी लोकतंत्र, सहकारी लोकतंत्र, आर्थिक लोकतंत्र, परस्पर संवादात्मक लोकतंत्र, निरंकुश लोकतंत्र, क्रांतिकारी लोकतंत्र जैसे मॉडल का जिक्र बहुत आसानी से मिल जाता है। लेकिन, हाल के दशकों में लोकतंत्र में लेनदेन मॉडल यानी एक हाथ दो और दूसरे हाथ से लो का ट्रेंड भी तेजी से बढ़ा है। सिर्फ भारतीय लोकतंत्र में ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी ऐसी प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी गिव एंड टेक वाली प्रवृत्ति साफ-साफ महसूस की गई।

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अमेरिका में भी दिखी गिव एंड टेक पॉलिटिक्स

टेस्ला के मालिक एलन मस्क ने चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की रुपये-पैसे हर तरह से पूरी मदद की। नतीजा ये रहा कि ट्रंप की जीत के साथ ही मस्क की कंपनियों के शेयर रॉकेट की रफ्तार से बढ़ने लगे। टेस्ला, स्पेसएक्स और न्यूरालिंक कॉर्पोरेशन जैसी कंपनियों के विस्तार प्लान की भी तैयारियों पर भीतरखाने काम चल रहा है। ऐसे में लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया को कॉरपोरेट के चुनावी चंदा से लेकर वोटरों को मुफ्त रेवड़ियां बांटने तक की संस्कृति प्रभावित कर रही है। लोकतंत्र की गाड़ी लेन-देन के ईंधन से आगे बढ़ रही है- जिसमें वोटर और नेता दोनों एक-दूसरे से कुछ हासिल करने की उम्मीद में कदमताल कर रहे हैं। अगर लोकतंत्र में यही प्रवृत्ति दिनों-दिन मजबूत होती रही तो फिर आम वोटरों का इस्तेमाल एक मोहरे की तरह ही होगा, जिसे उसके वोट की कीमत के तौर कुछ सहूलियत या कैश मिलेगा? क्या ऐसी प्रवृत्ति से लोकतंत्र के असली मर्म को हासिल किया जा सकेगा?

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