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उत्तर-दक्षिण के सुर इतने अलहदा क्यों, क्या है स्टालिन का प्लान?

Bharat Ek Soch : तमिलनाडु की सरकार ने बजट में क्यों रुपये का निशान बदल दिया। सीएम स्टालिन का कौन सा प्लान है? आइए जानते हैं सबकुछ।
10:02 PM Mar 15, 2025 IST | Anurradha Prasad
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Bharat Ek Soch
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Bharat Ek Soch : संसदीय लोकतंत्र में राजनीति भी कुम्हार के चाक की तरह होती है। जब तक चाक चलता है कुम्हार को उम्मीद बनी रहती है कि वो कुछ-न-कुछ अपने लिए गढ़ लेगा। इसी तरह जब मुद्दा गर्म रहता है तो राजनेताओं को भी उम्मीद रहती है कि कुछ लोगों को अपनी पार्टी के साथ जोड़ लेंगे। इन दिनों उत्तर-दक्षिण के बीच राजनीति भी कुछ ऐसे ही के तेवरों के साथ आगे बढ़ रही है। तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने सूबे के बजट से रुपये का चिह्न हटा दिया, जिसे केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक खतरनाक मानसिकता बताया।

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तीन भाषा फॉर्मूले पर बवाल शांत भी नहीं हुआ था कि तमिलनाडु सरकार के बजट से रुपये का सिंबल हटाने पर नया रण जारी है। परिसीमन यानी Delimitation के आधार को लेकर दक्षिण भारत के राज्य पहले से ही आपत्ति जता रहे हैं। उनकी दलील है कि आबादी कंट्रोल करने के मोर्चे पर अच्छा रिजल्ट देने की सजा नहीं मिलनी चाहिए? ऐसे में सवाल उठता है कि उत्तर-दक्षिण के सुर इतने अलहदा क्यों हैं? स्टालिन सरकार ने तमिलनाडु के बजट में रुपये के सिंबल को क्यों बदला? हिंदी विरोध की राजनीति को डीएमके नए सिरे से धार क्यों दे रही है? राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (National Education Policy 2020 ) के त्रिभाषा फार्मूला (Three Language Formula) को मोदी सरकार की हिंदी थोपने की रणनीति के तौर पर क्यों देखा जा रहा है? Delimitation यानी परिसीमन से केंद की राजनीति में दक्षिण भारत का पलड़ा हल्का होने वाला है?

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गाहे-बगाहे सामने आता रहता उत्तर-दक्षिण का झगड़ा

हमारे संविधान के पहले अनुच्छेद में साफ-साफ लिखा गया है - India, that is Bharat, shall be a Union of States... शासन के लिए संघीय ढांचे को चुना गया। संविधान में केंद्र और राज्यों के अधिकार साफ-साफ लिखे गए हैं। समय के साथ बदलावों को संविधान संशोधन के जरिए कुबूल किया गया है। लेकिन, उत्तर-दक्षिण का झगड़ा गाहे-बगाहे सामने आता रहता है। इसी हफ्ते तमिलनाडु के वित्त मंत्री थंगम थेनारसु ने जब बजट पेश किया तो अचानक दक्षिण भारत का ये राज्य भी चर्चा में आ गया। दरअसल, तमिलनाडु के बजट में रुपये के सिंबल की जगह तमिल शब्द रुबाई का पहला अक्षर इस्तेमाल किया गया, जिसके नीचे लिखा गया ‘एल्लोर्कुम एलाम’ यानी सब कुछ आपके लिए। अब सवाल उठता है कि स्टालिन सरकार ने ऐसा क्यों किया? रुपये के सिंबल को 2010 में अपनाया गया था और इसे डिजाइन रहने वाले टीडी उदय कुमार का ताल्लुक तमिलनाडु से ही है। उनके पिता कभी डीएमके के सिंबल से विधायक हुआ करते थे। ऐसे में सबसे पहले ये समझते हैं कि तमिलनाडु के बजट से रुपये का सिंबल बदले जाने के बाद सियासत किस तरह करवट ले रही है?

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निर्मला सीतारमण ने पूछा- 2010 में क्यों नहीं किया विरोध

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट X पर एक लंबा-चौड़ा पोस्ट किया। उन्होंने पूछा कि अगर डीएमके को रुपये के मौजूदा सिंबल से दिक्कत है तो फिर 2010 में विरोध क्यों नहीं किया, जब UPA सरकार ने इसे अपनाया था। उन्होंने तमिल शब्द रुपाई का मतलब भी समझाने की कोशिश की। हिंदी पट्टी के राज्यों के सियासतदानों को भी एक नया मुद्दा मिल गया है। हिंदी बनाम तमिल मुद्दे को धार दिया जा रहा है। दरअसल, भाषाई विवाद की एक बड़ी वजह 2026 में होने वाले चुनाव को भी माना जा रहा है। अभी तमिलनाडु में डीएमके की पकड़ बरकरार है।

बीजेपी को संभावित खतरे के रूप में देख रहे स्टालिन

साल 2016 में जयललिता के निधन के बाद से AIADMK लगातार कमजोर होती गई। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने तमिलनाडु की 39 में से 23 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जिसमें से बीजेपी के सिंबल से एक भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया। लेकिन, वोट शेयर के मामले में बीजेपी तीसरे नंबर की पार्टी रही। ऐसे में अगले साल होने वाले तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में बीजेपी को अपने लिए भरपूर संभावना दिख रही है। काशी तमिल संगमम के जरिए भी बीजेपी तमिलनाडु के लोगों से अपना कनेक्शन जोड़ने में लगी है। इसलिए, स्टालिन बीजेपी को संभावित खतरे के रूप में देख रहे हैं।

त्रिभाषा फार्मूले पर केंद्र-स्टालिन सरकार आमने सामने

तमिल राजनीति में हिंदी विरोध नई बात नहीं है। स्टालिन सरकार ने बजट में राज्य पाठ्यपुस्तक निगम के जरिए चुनिंदा 500 तमिल किताबों का दूसरी भाषाओं में तर्जुमा कराने का ऐलान किया। हर साल वर्ल्ड तमिल ओलंपियाड आयोजित करने की बात भी बजट में है। दरअसल, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन और केंद्र सरकार के बीच राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के त्रिभाषा फार्मूले को लेकर तीखी तकरार जारी है। संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण की शुरुआत में त्रिभाषा फार्मूला पर जमकर हंगामा हुआ।

धर्मेंद्र प्रधान ने डीएमके पर लगाया आरोप

शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने आरोप लगाया कि डीएमके तमिलनाडु के छात्रों के भविष्य के साथ राजनीति कर रही है। इस दौरान धर्मेंद्र प्रधान के मुंह से कुछ ऐसे शब्द भी निकले, जिस पर डीएमके ने कड़ा ऐतराज जताया। हंगामा बढ़ने पर शिक्षा मंत्री को अपने शब्द वापस लेने पड़े। अब ये समझना जरूरी है कि आखिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ट्राइ लैंग्वेज फार्मूला क्या है? आखिर तमिलनाडु की स्टालिन सरकार को क्यों लगता है कि यह राज्य की भाषाई स्वायत्तता में दखल है? तमिलनाडु में हिंदी विरोध की आंधी कब और कैसे शुरू हुई?

दक्षिण भारत के राज्यों को परिसीमन की चिंता 

तमिल राजनीति में डीएमके जिस मुकाम पर खड़ी है, उसे यहां तक पहुंचाने में हिंदी विरोधी आंदोलन ने बड़ी भूमिका निभाई है। हिंदी विरोध से इतर दक्षिण भारत के राज्यों की एक बड़ी चिंता परिसीमन को लेकर है। अगले साल परिसीमन होना है। डीएमके की मांग है कि परिसीमन में सिर्फ जनसंख्या आधार नहीं होना चाहिए। आर्थिक प्रदर्शन, GSDP, प्रति व्यक्ति आय, बुनियादी ढांचे में सुधार को भी पैमाना बनाने पर विचार होना चाहिए। मुख्यमंत्री स्टालिन की परिसीमन पर चिंता कई बार सामने आ चुकी है। वहीं, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह साफ-साफ कह चुके हैं कि तमिलनाडु समेत दक्षिण भारत के किसी भी राज्य के संसदीय प्रतिनिधित्व में कमी नहीं आएगी? लेकिन, बिना परिसीमन का आधार बदले ये कैसे संभव होगा? ये फॉर्मूला किसी की समझ में नहीं आ रहा है। ऐसे में सवाल ये भी उठ रहा है कि हर संसदीय सीट पर आबादी का अनुपात क्या होगा?

16 बच्चे पैदा करने की बात कह चुके हैं स्टालिन

लोकतांत्रिक राजनीति में सत्ता संतुलन बनाए रखने में कम आबादी को एक कमजोर की तरह देखा जाता है। 543 सीटों वाली लोकसभा में दक्षिण भारत से सिर्फ 131 सांसद आते हैं। दूसरी ओर यूपी, बिहार और झारखंड तीन राज्यों की लोकसभा सीटों को जोड़ दें तो 134 हो जाता है। अनुमान लगाया जा रहा है कि Delimitation के बाद हिंदी पट्टी के राज्यों की सीटों में भारी इजाफा होगा तो दक्षिण भारत का संसद में राजनीतिक वर्चस्व कम होगा। शायद यही वजह है कि कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री स्टालिन सूबे के लोगों से 16 बच्चे पैदा करने की बात कह चुके हैं तो आंध्र प्रदेश के सीएम एन. चंद्रबाबू नायडू भी अधिक बच्चे पैदा करने की अपील कर चुके हैं।

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दक्षिण भारत के राज्यों में सत्ता से दूर बीजेपी

प्रधानमंत्री मोदी की तीसरी पारी में 26 साल बाद दिल्ली में कमल खिला, ओडिशा में 24 साल बाद बीजेपी ने नवीन पटनायक को सत्ता से उखाड़ फेंका। लेकिन, तमाम प्रयोगों के बाद भी पश्चिम बंगाल में अब तक कम नहीं खिल पाया है। दक्षिण भारत के राज्यों में भी बीजेपी सत्ता से दूर है। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना जैसे राज्यों पर बीजेपी खामोशी से विस्तार प्लान पर काम कर रही है। बीजेपी को रोकने के लिए दक्षिण की पार्टियां अपने-अपने तरीके से मुद्दों को धार दे रही हैं। लेकिन, भाषा और संस्कृति दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर दक्षिण भारत के राज्य आपस में जुड़ जाते हैं। ऐसे में इसकी प्रबल संभावना है कि आने वाले दिनों में तमिल बनाम हिंदी और दक्षिण बनाम उत्तर का सुर दिनों-दिन तेज होता जाए। अपने चुनावी नफा-नुकसान का हिसाब लगाते हुए सियासी महारथी विरोध और बंटवारे की राजनीति को हवा देते रहें। क्या भारत के अमृत काल में ऐसी राह नहीं निकाली जानी चाहिए, जिससे केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास की खाई को कम किया जा सके?

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