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Opinion: क्‍या राजनीत‍िक पार्ट‍ियां देश में ला रहीं 'महामारी', बेहद खतरनाक है ये आदत

Freebies Culture in India: कई सरकारों ने लोगों के लिए मुफ्त की योजनाएं शुरू की हैं। आइए जानते हैं, इससे फायदा हो रहा है या नुकसान?
09:51 PM Nov 25, 2024 IST | Abhishek Mehrotra
opinion  क्‍या राजनीत‍िक पार्ट‍ियां देश में ला रहीं  महामारी   बेहद खतरनाक है ये आदत

Freebies Culture in India: मान लीजिये आप अपने किसी दोस्त की मदद करना चाहते हैं। आप इस स्थिति में हैं कि उसकी कोई अच्छी नौकरी लगवा दें या फिर कोई छोटा-मोटा बिजनेस सेटअप करवा दें। लेकिन आप इसके बजाये उसे हर महीने कुछ पैसे देना चुनते हैं। तो क्या इसे आत्मनिर्भरता या सशक्तिकरण का नाम दिया जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि आप अपने दोस्त को आत्म-निर्भर बनना सिखा रहे हैं? उसे अपने पैरों पर खड़ा कर रहे हैं? निश्चित तौर पर नहीं। इसे किसी भी सूरत में आत्मनिर्भरता की कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता।

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 टैक्सपेयर्स के पैसों से लिया जा रहा चुनावी लाभ

लेकिन अफसोस की बात है कि राजनीति में बाकायदा ऐसा किया जा रहा है। मुफ्त की योजनाओं को आत्मनिर्भरता-सशक्तिकरण का नाम देकर सरकारें टैक्सपेयर्स के पैसों से अपने लिए चुनावी लाभ खरीद रही हैं। महाराष्ट्र में महायुति की जीत और खासकर एकनाथ शिन्दे की शिवसेना के अभूतपूर्व प्रदर्शन में ऐसी योजनाओं का उल्लेखनीय योगदान है। शिन्दे ने चुनाव से ठीक पहले मध्य प्रदेश की लाड़ली बहना जैसी योजना की शुरुआत की, जिसके तहत महिलाओं को हर महीने 15 सौ रुपए की आर्थिक सहायता दी जाती है। इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्होंने लाडला भाई योजना भी शुरू कर डाली। इन दोनों ही योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च होते हैं और ये खर्चा आप और हम जैसे टैक्सपेयर्स की जेब का ही होता है।

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इस तरह हो रहा नुकसान 

चुनाव में लाभ के लिए एकनाथ शिन्दे ने आर्थिक सहायता की राशि को बढ़ाने का वादा किया था। इसका सीधा मतलब है कि सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ेगा। राज्य में इस योजना की करीब दो करोड़ लाभार्थी महिलाएं हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार कितनी बड़ी रकम हर महीने खर्च कर रही है, वो भी केवल अपने निजी लाभ के लिए। कुछ वक्त पहले मैक्वायरी की रिपोर्ट में महाराष्ट्र के फिस्कल डेफिसिट पर चिंता जताई गई थी। ब्रोकरेज फर्म का कहना था कि लाड़ली बहना जैसी योजनाओं से राज्य का फिस्कल डेफिसिट 2.6% के पार जा सकता है। मध्य प्रदेश सरकार कुछ वक्त पहले तक महिलाओं को आर्थिक सहायता पर सालाना अनुमानित 19,650 करोड़ रुपए खर्च कर रही थी। बात अकेले महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश की नहीं है, मुफ्त की योजनाएं हर प्रदेश में मौजूद हैं और इनमें लगातार इजाफा हो रहा है। आप नजर घुमाकर देख लीजिये, कहीं भी चुनाव विकास जैसे मुद्दों पर नहीं लड़े जाते। हर दल दूसरे से अधिक मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का वादा करता है।

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सरकारें कर्जा उठाकर दे रहीं पैसा 

मुफ्त की योजनाओं से सरकार एक पक्ष या वर्ग को खुश कर सकती है, लेकिन इस खुशी की कीमत आबादी के एक बड़े हिस्से को चुकानी पड़ती है। आप खुद ही बताइए, आपके पास सौ रुपए हैं। 60 रुपए आप अपने घर को चमकाने, आर्थिक शब्दावली में कहें तो विकास पर खर्च कर रहे हैं। 30 रुपए आपने घर से जुड़े सामान को खरीदने के लिए रखे हैं। 10 रुपए आपने अन्य आवश्यक कार्यों के लिए रखे हैं। अब यदि आपको 30 रुपए का अतिरिक्त खर्चा करना हो, तो आप पैसा कहां से लाएंगे? किसी से उधार लेंगे या दूसरे जरूरी कार्यों के लिए आरक्षित धन का इस्तेमाल करेंगे। यही सरकारें कर रही हैं, वो विकास में खर्च होने वाले पैसों से एक पक्ष का व्यक्तिगत विकास करने में लगी हैं और इसके लिए कर्जा भी उठा रही हैं। सरकारों को सड़कें, स्कूल, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए भी पैसा चाहिए होता है। जब सरकार कमाई का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त की योजनाओं पर खर्च कर देगी, तो ऐसे में मूलभूत सुविधाओं पर होने वाले खर्चे में कमी आना स्वाभाविक है।

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आत्मनिर्भर बनाकर की जा सकती है मदद

खर्चा बढ़ने पर सरकार को भी आय बढ़ाने के रास्ते तलाशने होते हैं और उस सूरत में टैक्स में बढ़ोतरी उसके लिए सबसे सरल उपाय होता है। ऐसे में इस तरह की योजनाओं का फायदा केवल एक सीमित वर्ग को मिलता है, लेकिन बड़े पैमाने पर लोगों को नुकसान उठाना पड़ता है। साथ ही प्रदेश के विकास की रफ्तार भी प्रभावित होती है। किसी की सहायता गलत नहीं है, लेकिन मुफ्त में कुछ बांटना सही नहीं कहा जा सकता।

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सकारात्मक संदेश दे सकती थी सरकार 

उदाहरण के तौर पर यदि महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश सरकारें महिलाओं को आर्थिक सहायता देने के एवज में उनसे कपड़े के थैले आदि बनवाने जैसे कुछ काम करवातीं, उनके कौशल विकास पर खर्च करतीं, तो ज्यादा बेहतर होता। इससे महिलाओं में कमाने का जज्बा विकसित होता, उनमें आत्मसम्मान और विश्वास जागृत होता। इसके साथ ही सरकार को भी कुछ न कुछ हासिल होता। यह दोनों पक्षों के लिए विन विन सिच्युशन रहती। साथ ही संदेश भी जाता कि सरकार मुफ्तखोरी को बढ़ावा नहीं देना चाहती। मुफ्त की योजनाओं के आर्थिक प्रभाव को लेकर लगातार चेताया जा रहा है। तमाम आर्थिक विश्लेषक ऐसी योजनाओं के दूरगामी परिणामों पर तस्वीर पेश कर चुके हैं, लेकिन क्या हमारे सियासी दल उस तस्वीर को समझने की कोशिश करेंगे? यह अपने आप में एक सवाल है।

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