क्या जम्मू-कश्मीर में BJP को रोक पाएगा नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन?
Bharat Ek Soch: दस साल बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग होने जा रही है। 18 सितंबर को पहले राउंड में 24 सीटों के लिए मतदान होगा। जैसे-जैसे वोटिंग की तारीख नजदीक आती जा रही है, रोमांच बढ़ता जा रहा है। बड़े-बड़े नेताओं का जम्मू-कश्मीर दौरा बढ़ता जा रहा है। कश्मीर की फिजाओं में केसर की खुशबू घुली है। बागानों में पेड़ पके सेब से लदे हैं, लेकिन वहां के चुनावी अखाड़े में खड़े सियासी दलों की सांसें फूली हुई हैं।
चुनावी सभाओं और रैलियों में भले ही जीत के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हों, लेकिन जम्मू-कश्मीर के लोगों के मन में क्या है? वहां के लोग किस सोच के साथ EVM का बटन दबाएंगे। इसे ठीक-ठीक पढ़ने की स्थिति में कोई नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी डोडा की जमीन से हुंकार भर चुके हैं। उन्होंने दोहराया कि वो किस तरह का कश्मीर बनाना चाहते हैं। संभवत: 45 साल बाद किसी प्रधानमंत्री के कदम डोडा की जमीन पर पड़े।
समीकरण बदलने के आसार
बीजेपी रणनीतिकार भी हिसाब नहीं लगा पा रहे हैं कि 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर के लोग किस मुद्दे पर वोटिंग करेंगे? बीजेपी को रोकने के लिए नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन किया है, लेकिन क्या इंडिया गठबंधन जम्मू-कश्मीर में बीजेपी को रोक पाएगा- ये भी एक यक्ष प्रश्न है। वैसे तो महबूबा मुफ्ती भी दिल्ली में इंडिया गठबंधन की छतरी तले खड़ी हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में पीडीपी अकेले चुनाव लड़ रही है। वोटिंग से पहले इंजीनियर राशिद की रिहाई से कश्मीर में वोटों का समीकरण बदलने के आसार बन गए है? वहां के चुनावी अखाड़े में उतरे कट्टरपंथी निर्दलीय उम्मीदवारों को कहां से मिल रही है ताकत? जेल में बंद मौलवी सरजन बरकती जैसे कट्टरपंथी ने भी गांदरबल और बीरवाह से नामांकन दाखिल किया है। जो 2016 में हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी के एनकाउंटर में मारे जाने के बाद कश्मीर में हिंसक आंदोलन का बड़ा चेहरा था। ऐसे में समझने की कोशिश करेंगे कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में वोट के लिए कौन सी इंजीनियरिंग चल रही है?
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राम माधव की पकड़
जम्मू-कश्मीर के चुनावी अखाड़े में मुख्य तौर से चार ताकतें दिख रही हैं- जो सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रही हैं। पहली ताकत है- बीजेपी। जिसने पांच साल पहले 370 को इतिहास बना दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने नया कश्मीर बनाने का वादा किया और उसी एजेंडे को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं। दूसरी ताकत, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन है। तीसरी ताकत महबूबा मुफ्ती की पीडीपी है। चौथी ताकत निर्दलीय उम्मीदवारों की हैं- जिसमें कई कट्टरपंथी भी चुनावी अखाड़े में हैं। जिन्हें जमात-ए-इस्लामी का समर्थन है। ऐसे में सबसे पहले बात जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के वोटों की इंजीनियरिंग की। केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के लिए बीजेपी ने पिछले महीने ही राम माधव को प्रभारी बनाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बीजेपी में आए राम माधव की जम्मू-कश्मीर पर तगड़ी पकड़ मानी जाती है। साल 2014 में जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार बनवाने में उनकी अहम भूमिका मानी जाती है। 90 सदस्यों वाली जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बीजेपी का टारगेट 50 प्लस का है।
बीजेपी की प्लानिंग क्या?
पहले बीजेपी सभी 90 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की बात करती थी, लेकिन अब सिर्फ 62 सीटों पर अपने कैंडिडेट उतार रही है। कश्मीर क्षेत्र की 28 सीटों पर बीजेपी का उम्मीदवार नहीं होगा। अब सवाल उठ रहा है कि कश्मीर की 28 सीटों पर बीजेपी किसे वॉकओवर दे रही है? ऐसे में सबसे पहले देखते हैं कि जम्मू-कश्मीर में बीजेपी किस तरह वोटों की इंजीनियरिंग कर रही है और पीएम मोदी ने डोडा की जमीन से विरोधियों किस तरह चुनौती दी। बीजेपी रणनीतिकारों को जम्मू क्षेत्र का हवा-पानी कमल के लिए अनुकूल लग रहा है, लेकिन कश्मीर का मिजाज जम्मू क्षेत्र से अलग है। ऐसे में बीजेपी की रणनीति कश्मीर क्षेत्र की 28 सीटों पर ऐसे निर्दलीय और छोटे दलों के उम्मीदवारों को समर्थन देने की तय मानी जा रही है। जिनकी जीत की संभावना अधिक हो। सज्जाद लोन, अल्ताफ बुखारी और गुलाम नबी आजाद के साथ बीजेपी के बड़े नेताओं की कैमेस्ट्री किसी से छिपी नहीं है, लेकिन अभी कोई अपने पत्ते नहीं खोलना चाहता है। न ही खुल कर साथ दिखना चाहता है। विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि कश्मीर में कई निर्दलीय उम्मीदवारों ने बीजेपी के इशारे पर पर्चा भरा है। हाल ही में जेल से बेल पर छूटे बारामूला से सांसद इंजीनियर राशिद भले ही दावा कर रहे हों कि उनका NDA या INDIA गठबंधन से कोई लेना-देना नहीं है।
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इंजीनियर राशिद ने बढ़ाई टेंशन
इंजीनियर राशिद वो शख्स हैं- जो टेटर फंडिंग के आरोप में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं। जो जेल में रहते हुए उमर अब्दुल्ला और सज्जाद लोन को बारामूला लोकसभा सीट पर पटखनी दे चुके हैं। ऐसे में इंजीनियर राशिद की आवामी इत्तेहाद पार्टी ने कश्मीर के सियासी अखाड़े में खड़े कई दिग्गजों की टेंशन बढ़ा दी है। जेल में बंद कट्टरपंथी सरजन बरकती भी चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहा है। पीडीपी सुप्रीमो महबूबा मुफ्ती इंजीनियर राशिद की जमानत की टाइमिंग पर सवाल उठा रही हैं। फारूख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला हिसाब लगा रहे होंगे कि कट्टरपंथियों की एंट्री से वोट कहां-कहां छिटक सकता है। कई ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार भी कश्मीर में वोट मांगते दिख रहे हैं– जिन्हें कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी ने समर्थन देने का ऐलान किया है। इस लिस्ट में पुलवामा से तलत मजीद, कलगाम से सयार अहमद रेशी, दिवसर से नजीर अहमद बट, जैनपोरा से एजाज अहमद, लंगेट से कलीमुल्लाह लोन और बांदीपोरा से हाफिज मोहम्मद सिकंदर मलिक जैसे नाम शामिल है।
निर्दलीय चुनाव में उतरे कई नेता
अब हिसाब लगाया जा रहा है कि बड़ी तादाद में कट्टरपंथियों के चुनाव में उतरने का साइड इफेक्ट कहां-कहां दिख सकता है? क्या जम्मू-कश्मीर के लोग कट्टरपंथी पृष्ठभूमि या समर्थन वाले उम्मीदवारों को वोट देंगे? जम्मू-कश्मीर चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन किया है। तय हुआ कि 51 सीटों पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और 32 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार रहेंगे। पांच सीटों पर फ्रेंडली फाइट है, लेकिन कांग्रेस और एनसी के बीच गठबंधन की वजह से टिकट कटने से नाराज कई नेता निर्दलीय चुनाव में उतर गए हैं। ऐसे में जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन के सामने चुनौतियों कम नहीं हैं। इस चुनावी गठबंधन के वोटों की इंजीनियरिंग में कई पेंच ढीले दिख रहे हैं।
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पीडीपी की उम्मीदें
जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस अपनी पांच गारंटी के साथ लोगों से वोट मांग रही है, लेकिन कांग्रेस की सबसे बड़ी टेंशन टिकट कटने से नाराज पार्टी के बागी बने हुए हैं। कांग्रेस के गांदरबल जिला अध्यक्ष साहिल फारूक ने तो नेशनल कांफ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला के खिलाफ गांदरबल विधानसभा सीट से निर्दलीय पर्चा दाखिल किया है। इम्तियाज खान, वसीम सल्ला, आसिफ बेघ, मंजूर अहमद, इरफान शाह, इस्माइल खान जैसे दर्जनभर कांग्रेस के बागी उम्मीदवार निर्दलीय मैदान में हैं। कश्मीर पॉलिटिक्स में अहम ध्रुव रही पीडीपी भी उम्मीदों के घोड़े पर सवार है। पीडीपी सुप्रीमो महबूबा मुफ्ती खुद चुनावी अखाड़े से दूर हैं, लेकिन मुफ्ती परिवार की तीसरी पीढ़ी यानी इल्तिजा मुफ्ती इस बार चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रही हैं। पिछले 10 वर्षों में पीडीपी ने जो रास्ता चुना, उसमें पार्टी की सियासी जमीन बहुत सिकुड़ी।
नहीं मिल रहे योग्य उम्मीदवार
एक कड़वी सच्चाई ये भी है कि पीडीपी को जम्मू-कश्मीर की सभी सीटों के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं। वैसे पीडीपी ने कश्मीर की सभी 47 सीटों और जम्मू क्षेत्र की कुछ सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए हैं। महबूबा मुफ्ती जिन मुद्दों को पिछले पांच साल से उठा रही है– अब उन मुद्दों के साथ कश्मीर घाटी में भी खड़े होने वाले दिनों-दिन कम दिख रहे हैं, लेकिन महबूबा मुफ्ती का कॉन्फिडेंस हाई है। उनका कहना है कि इस बार पीडीपी किंगमेकर बनेगी और मौका मिला तो पीडीपी से मुख्यमंत्री चुनेंगे। महबूबा ये भी जानती हैं कि कश्मीर में उनके सामने एक ओर बीजेपी है। दूसरी ओर नेशनल कॉन्फ्रेंस, तीसरी ओर इंजीनियर राशिद की पार्टी और चौथी ओर जमात-ए-इस्लामी के समर्थन वाले निर्दलीय उम्मीदवार हैं। ऐसे में महबूबा मुफ्ती इंजीनियर राशिद की पार्टी को बीजेपी की पॉक्सी पार्टी बता रही हैं।
कहीं मायावती जैसा न हो जाए हाल
कुछ पॉलिटिकल पंडित भविष्यवाणी कर रहे हैं कि कहीं महबूबा मुफ्ती की पीडीपी का जम्मू-कश्मीर में वही हाल न हो जाए जो यूपी में मायावती की बीएसपी का हुआ। आज की तारीख में जम्मू-कश्मीर में कोई भी ऐसी सीट नहीं दिख रही है, जहां पीडीपी दावे के साथ कह सके कि यहां तो जीत पक्की है। लेकिन, राजनीति साहस और संभावनाओं का खेल है। जिसकी राजनीतिक श्रद्धांजलि लिखने की तैयारी हो रही होती है, जिसकी जीत की संभावना बहुत कम दिखाई देती है। कभी-कभी उसे भी पब्लिक अपने वोट से पावर पॉलिटिक्स के केंद्र में ला देती है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी के साथ ऐसा ही हुआ। यूपी में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के नतीजों ने भी सबको चौंकाया।
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चुनाव का बहिष्कार नहीं
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद चिराग पासवान की राजनीति का The End माना जा रहा था, लेकिन उनकी पार्टी LJP-R ने 2024 के लोकसभा चुनाव में धमाकेदार वापसी की। ऐसे में पीडीपी को लेकर कोई भी भविष्यवाणी जल्दबाजी होगी। जम्मू-कश्मीर का ये विधानसभा चुनाव कई मायनों में खास है। जम्मू-कश्मीर में अब न तो 370 है, न तो पूर्ण राज्य है। वहां के लोगों को भी देश के दूसरे हिस्से के लोगों की तरह ही संविधान से मिले अधिकार हैं। अब वहां न तो पत्थरबाज हैं, न बात-बात पर हड़ताल और बहिष्कार का ऐलान करने वाले हुर्रियत के नेता। जम्मू-कश्मीर में पहली बार किसी गुट या दल ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान नहीं किया है। पहली बार, कट्टरपंथी बहिष्कार की जगह बैलेट से अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। पहली बार नए दलों और निर्दलीयों का डर भीतरखाने कश्मीर में वर्षों तक सियासी धुरी रही पार्टियों को सता रहा है। केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में वोटों को लिए जिस तरह की इंजीनियरिंग चल रही है– उसमें ये भविष्यवाणी करना भी मुश्किल है कि अगर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति आई है, तो कौन किधर जाएगा? पीडीपी के सामने दो विकल्प होंगे- एक बीजेपी और दूसरा नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन।
राशिद की पार्टी के सामने दो विकल्प
इसी तरह इंजीनियर राशिद की पार्टी के सामने भी दो विकल्प होंगे। निर्दलीयों के पास भी दो विकल्प होंगे। ऐसे में जम्मू-कश्मीर की चुनावी लड़ाई में राजनीतिक दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों की स्थिति कैरम बोर्ड पर बिखरी गोटियों की तरह है, जिसमें स्ट्राइक के निशाने पर गोटी कोई और दिख रही है, लेकिन पॉकेट में किसी और गोटी को पहुंचाना है।