दिनेश पाठक, नई दिल्ली
Lok Sabha Election 1962 : देश में हुआ तीसरा आम चुनाव कई मामलों में अलग था। साल 1962 में संपन्न इस चुनाव में कांग्रेस को 70 फीसदी सीटों पर विजय जरूर मिली थी लेकिन वोट प्रतिशत और सीटें कम हुई थीं। तीसरा चुनाव आते-आते नेहरू का ग्राफ नीचे गिरने लगा था। मतलब, साफ है कि यहां कुछ भी स्थाई नहीं है। भारतीय मतदाता बड़े से बड़े नेता को सिर पर बैठा सकते हैं तो उसे नीचे उतारने में उन्हें बिल्कुल वक्त नहीं लगता। मौका मिलते ही जनता वोटों से सरकार बदलने की ताकत रखती है।
साल 1962 के इस चुनाव में कई नए दलों ने संसद में शानदार उपस्थिति दर्ज की थी, इनमें सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाली स्वतंत्र पार्टी और डीएमके प्रमुख रहे। यह पहला चुनाव था जब एक सीट से एक ही सदस्य संसद पहुंचा। इसके पहले कई सीटों से दो-दो सांसद चुने जाने की व्यवस्था थी। यह जवाहर लाल नेहरू का अंतिम चुनाव भी साबित हुआ था। इसी समय भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी का तेजी से उदय भी हुआ। हालांकि, सक्रिय वे पहले से रहीं लेकिन अब उनकी भूमिका स्पष्ट होने लगी थी। वे नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में पहचानी जाने लगी थीं। इस तरह आजादी के बाद हुआ तीसरा आम चुनाव कई संदेश दे गया तो कई नजीर भी पेश कर गया।
देश के साथ मतदाताओं की संख्या भी बढ़ी
साल 1962 के चुनाव में मतदाताओं की संख्या बढ़कर 21.8 करोड़ हो गई थी। 55 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ था। इसके पहले साल 1957 के चुनाव में कुल 19 करोड़ से ज्यादा तथा 1952 के चुनाव में 17 करोड़ से कुछ ज्यादा मतदाता देश में सूचीबद्ध किए गए थे। यह पहला आम चुनाव था जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने का क्रम टूट गया था। केरल और ओडिशा विधान सभा में साल 1960 और 1961 में मध्यावधि चुनाव की वजह से यह स्थिति बनी थी।
कांग्रेस को तीसरी बार मिला प्रचंड बहुमत
इस चुनाव में कुल 494 सीटों पर मतदान हुआ था, इनमें से 361 पर कांग्रेस ने विजय हासिल की थी। 1957 के चुनाव में कांग्रेस ने इससे ज्यादा 371 सीटें जीती थीं। वोट प्रतिशत में कांग्रेस के आसपास कोई नहीं था। इस दल को कुल 44 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। सीपीआई 29 सीटों के साथ पिछले चुनावों की तरह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। जनसंघ ने 14 और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 12 सीटों पर विजय हासिल की थी।
वोटिंग में केरल नंबर 1 तो ओडिशा सबसे पीछे
केरल के जागरूक मतदाताओं ने इस चुनाव में सर्वाधिक 70 फीसदी से ज्यादा वोट देकर देश में अव्वल स्थान ग्रहण किया तो सबसे कम वोट ओडिशा में पड़े थे। यहां सिर्फ 23 फीसदी से कुछ ज्यादा मतदाता वोट डालने पहुंचे थे। जबकि देशभर में औसत मतदान प्रतिशत 55 फीसदी से कुछ ज्यादा रहा था।
डीएमके और स्वतंत्र पार्टी ने दी मजबूत दस्तक
तमिलनाडु में डीएमके का उदय इसी चुनाव में हुआ। वह 7 सीटें जीतकर संसद में मजबूती से हाजिर हुई और इसे क्षेत्रीय पार्टियों के उदय की शुरुआत भी कह सकते हैं। साल 1967 के विधानसभा चुनाव में डीएमके ने राज्य में सरकार बना ली थी। इसी चुनाव में सी राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी 18 सीटें जीतकर संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी।
अटल और विपक्ष के नेता लोहिया को मिली हार
जनसंघ के युवा चेहरा रहे अटल बिहारी वाजपेई बलरामपुर से अपना दूसरा चुनाव हार गए तो विपक्ष के प्रमुख चेहरा रहे डॉ. राम मनोहर लोहिया को फूलपुर से नेहरू ने मात दी। लोहिया उस समय विपक्ष का स्थापित चेहरा थे। उन्हें समाजवादी सोच का प्रतिनिधि भी कहा जाता है।
इंदिरा कही जाने लगीं नेहरू की उत्तराधिकारी
यूं तो इंदिरा गांधी नेहरू के साथ लगातार सक्रिय रहीं। लेकिन राजनीति में उनकी औपचारिक एंट्री साल 1955 में कांग्रेस कार्यकारिणी में शामिल होने के साथ हुई थी। साल 1962 का चुनाव आते-आते उन्हें नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाने लगा था। उनका प्रभाव पार्टी में बढ़ने लगा था। सरकार में वे औपचारिक तौर पर भले शामिल नहीं थीं लेकिन इंदिरा का प्रभाव वहां भी बढ़ चुका था।