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Lok Sabha Election: 8वें चुनाव में कांग्रेस को मिली ऐतिहासिक जीत, अब तक कायम है रिकॉर्ड

Lok Sabha Election 1984: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपनी राजनीति की शुरुआत इसी लोकसभा चुनाव में की थी। इस चुनाव में उसके दो प्रत्याशी जीते थे लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता चुनाव हार गए थे। जब यह चुनाव चल रहा था तब भी देश के दो महत्वपूर्ण राज्य पंजाब और असम हिंसा की आग में जल रहे थे।
08:43 AM Apr 06, 2024 IST | Gaurav Pandey
lok sabha election  8वें चुनाव में कांग्रेस को मिली ऐतिहासिक जीत  अब तक कायम है रिकॉर्ड
1984 में राजीव गांधी बने प्रधानमंत्री (rashtrapatisachivalaya.gov.in)

दिनेश पाठक, नई दिल्ली

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General Election 1984 : साल 1984 का आम चुनाव कई मायनों में कई नई लकीरें बना गया। इस 8वें लोकसभा चुनाव (8th General Election) में कांग्रेस (Congress) को जो ऐतिहासिक जीत मिली, उसे भारतीय लोकतंत्र में कोई भी दल अब तक तोड़ नहीं पाया है। इस बार पीएम नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने शायद उसी लक्ष्य को पाने के लिए नारा दिया- अबकी बार, चार सौ पार। हालांकि, यह नारा उन्होंने एनडीए (NDA) के संदर्भ में दिया है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) को मोदी ने 370 पार का लक्ष्य दे रखा है।

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यह वह समय था जब 31 अक्तूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की हत्या उनके अपने सुरक्षा कर्मी ने कर दी थी। उसके बाद लोकसभा भंग कर दी गई और इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) अंतरिम पीएम बने। देश में आम चुनाव घोषित हुआ। पंजाब और असम में जबरदस्त हिंसा हो रही थी तो इन दोनों ही राज्यों में आम चुनाव के महीनों बाद अलग-अलग समय पर संसद सदस्य चुनने को वोट डाले गए।

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यही वह चुनाव था जब पहली बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) लोकसभा चुनाव में कूदी थी। इस चुनाव में उसके दो प्रत्याशी जीते थे लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता चुनाव हार गए थे। कांग्रेस की आंधी में पीवी नरसिंह राव जैसे बड़े नेता भी चुनाव हार गए थे। चंद्रशेखर बलिया से और चौधरी देवीलाल सोनीपत से चुनाव हार गए थे। इसी चुनाव में एक क्षेत्रीय दल तेलुगु देशम पार्टी लोकसभा में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई।

वह रिकार्ड अब तक कोई दल तोड़ न सका

साल 1984 के इलेक्शन में कांग्रेस को कुल 414 (404+10) सीटें मिली थीं। असल में देश भर की 516 सीटों पर चुनाव एक साथ हुए थे, उसमें कांग्रेस को 404 सीटें मिली तो बाद में असम और पंजाब में हुए मतदान में 10 और सीटें मिल गईं। 30 सीटों के साथ संसद में दूसरा सबसे बड़ा बनकर उभरी आंध्र प्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी। सीपीआई-एम, जनता पार्टी, एआईएडीएमके की जीत भी दो अंकों तक ही रही। बाकी सभी दल इकाई में ही सीटें जीत सके थे।

डीएमके भी इस चुनाव में सिर्फ दो सीटें जीत सकी थी, जबकि इसके पहले तमिलनाडु में उसका शानदार रिकॉर्ड रहा था। हालांकि, इतनी जबरदस्त जीत सिर्फ इसलिए मिली थी क्योंकि इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति लहर पूरे देश में थी, जिसका फायदा कांग्रेस और राजीव गांधी को मिला और वह ऐसा रिकार्ड बनाने में कामयाब रहे कि उसे आज तक कोई तोड़ नहीं सका।

पहले चुनाव में भाजपा के दो कैंडिडेट जीते

अपने पहले आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने भले ही दो सीटें जीती हों लेकिन इसकी तबसे अब तक की यात्रा बहुत कुछ कहती है। इस चुनाव में भाजपा ने अपने 224 कैंडिडेट उतारे थे। इनमें से दो जीते और 108 की जमानत तक नहीं बची। बावजूद इसके पार्टी अपने पाठ से नहीं डिगी। महज 12 साल बाद इसी दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी पीएम बने। साल 2014 से लगातार इस दल की सरकार है और 2024 में सरकार बनाने को फिर से मजबूत तैयारी है। भाजपा को यह सब कुछ आसानी से नहीं मिला है। इसके पीछे संगठन की दिन-रात की मेहनत को झुठलाया नहीं जा सकता।

पंजाब-असम में अगले साल हुआ इलेक्शन

जब यह चुनाव देश में चल रहा था तब भी देश के दो महत्वपूर्ण राज्य पंजाब और असम हिंसा की आग में जल रहे थे। यहां से हर रोज बुरी खबरें आती थीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार की वजह से सिखों में एक अलग उन्माद था। इसे कम करने को कांग्रेस ने ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति तक बनाया लेकिन इसका कोई खास असर नहीं हुआ। अलगाववाद-चरमपंथी ताकतें दोनों ही राज्यों में लगातार सक्रिय थीं। इसीलिए भारत निर्वाचन आयोग ने दोनों ही राज्यों की 27 सीटों के लिए मतदान बाद में कराए। पूरे देश में चुनाव 28 दिसंबर 1984 को खत्म हो गए थे लेकिन पंजाब में मतदान जुलाई 1985 और असम में दिसंबर 1985 में हुआ।

इस चुनाव में हारे तीन नेता बाद में बने PM

कुछ मामलों में इस चुनाव के नतीजे बड़े रोचक और प्रेरक भी रहे। केंद्र सरकार में मंत्री नरसिंह राव कांग्रेस की आंधी में भी हार गए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से और चंद्रशेखर बलिया से चुनाव में हार गए। इन तीनों ही कद्दावर नेताओं को हराने वाले लोग उस समय बड़ी हैसियत के नहीं थे। लेकिन, राजनीति में जुटे रहने की वजह से कहिए या भाग्य से, अगले कुछ ही सालों में ये तीनों ही लोग देश के प्रधानमंत्री बने।

नरसिंह राव ने तो अल्पमत की सरकार पूरे पांच साल चलाई तो अटल ने कई दलों के गठबंधन को मजबूती से बांधे रखा और तीन बार पीएम पद की शपथ लेने में कामयाब रहे। यह और बात है कि एक बार सिर्फ 13 दिन तो दोबारा 13 महीने और तीसरी बार पूरे पांच साल सरकार चलाने में वे कामयाब रहे। अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति में शुचिता का ध्यान रखते थे, इसीलिए उनकी सरकार गिरी भी थी लेकिन उन्हें कभी अफसोस नहीं हुआ। वे भारतीय राजनीति के ऐसे सितारे थे जो जब तक संसद में रहे, लगातार अपनी मौजूदगी का एहसास कराते रहे।

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