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Lok Sabha Election: 9वें चुनाव में किसी को नहीं मिला बहुमत; फिर कैसे पीएम बने वीपी सिंह?

Lok Sabha Election 1989: राजीव गांधी के नेतृत्व में लड़े गए इस आम चुनाव में कांग्रेस को 197 सीटें मिली थीं। यह आंकड़ा बहुमत से बहुत दूर था। दूसरे नंबर पर जनता दल था, जिसे 147 सीटें मिली थीं। तीसरे नंबर पर उभरकर आई थी भारतीय जनता पार्टी, जिसे 85 सीटें मिली थीं। 1984 के आम चुनाव में इसे केवल 2 सीटें मिल पाई थीं।
06:38 AM Apr 05, 2024 IST | Gaurav Pandey
lok sabha election  9वें चुनाव में किसी को नहीं मिला बहुमत  फिर कैसे पीएम बने वीपी सिंह
Representative Image

दिनेश पाठक, नई दिल्ली

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General Election 1989 : भारतीय लोकतंत्र की यही खूबसूरती है कि यहां कुछ भी स्थाई नहीं है। आम मतदाता किसकी किस्मत कब पलट दे, कोई भरोसा नहीं। इसकी स्पष्ट बानगी मिलती है 9वें लोकसभा चुनाव के परिणाम से। 8वें लोकसभा चुनाव में 414 सीटों पर कब्जा करने वाली कांग्रेस अगले ही चुनाव में आधी से भी कम सीटों पर रह गई। 2 सीटों वाली भारतीय जनता पार्टी ने 85 सीटें लेकर संसद में तीसरे सबसे बड़े दल के रूप में जगह बना ली। दूसरे नंबर पर रहा नया-नवेला गठबंधन जनता दल, जिसे 147 सीटें मिलीं। इस तरह किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।

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संसद में सबसे बड़े दल कांग्रेस के नेता राजीव गांधी ने विपक्ष में बैठने की घोषणा कर दी। ऐसे में सरकार बनाने की जिम्मेदारी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी जनता दल के कंधों पर आ गई। उसने भाजपा-सीपीआई-एम के समर्थन से सरकार बनाने का फैसला किया। इस तरह वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने, जो राजीव गांधी की आलोचना करने की वजह से कांग्रेस से निकाले गए थे और जनमोर्चा के नेता भी थे।

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दूसरी बार सत्ता से दूर हुई कांग्रेस

भारत ने 9वां आम चुनाव साल 1989 में देखा था। बोफोर्स घोटाले का शोर, पंजाब-असम में अलगाववादी ताकतों का तेजी से उभरना, बढ़ती हिंसा, श्रीलंका-लिट्टे के बीच चल रहे संघर्ष के बीच भारत की भूमिका को लेकर राजीव गांधी सरकार कठघरे में आ चुकी थी। उसकी साख पर बट्टा लग चुका था। केंद्र सरकार में वित्त एवं रक्षा मंत्री रहे वीपी सिंह अपनी ही पार्टी के नेता के आलोचक बन गए थे या यूं भी कह सकते हैं कि उन्होंने पीएम के खिलाफ ताल ठोक दी थी। नतीजे में उन्हें न केवल मंत्रिमंडल से हटना पड़ा बल्कि कांग्रेस पार्टी से भी हट गए।

इसके बाद तो वीपी सिंह फ्री होकर देश भर में बोफोर्स नामक तोप लेकर घूमे और उससे जो भी फायर करते उसके निशाने पर राजीव गांधी होते। उनके इन प्रयासों से आम लोगों की एक बड़ी आबादी को यह भरोसा हो चला था कि राजीव गांधी ने बोफोर्स तोप के सौदे में गड़बड़ी की है। आम मतदाता ने इसका जवाब 9वें आम चुनाव में दे दिया। कांग्रेस को सबसे ज्यादा वोट मिले, सबसे ज्यादा सीटें मिली लेकिन वह सत्ता से दूर हो गई। आजादी के बाद यह दूसरा मौका था जब कांग्रेस सत्ता से दूर हुई थी। पहली बार साल 1977 में उसे सत्ता से दूर जाना पड़ा था।

कुछ ऐसे बनी गैर-कांग्रेसी सरकार

राजीव गांधी के नेतृत्व में लड़े गए इस आम चुनाव में कांग्रेस को 197 सीटें मिली थीं। यह आंकड़ा बहुमत से बहुत दूर था। दूसरे नंबर पर जनता दल था, जिसे 147 सीटें मिली थीं। यह गठबंधन कई विपक्षी नेताओं-दलों ने मिलकर तैयार किया था। तीसरे नंबर पर उभरकर आई थी भारतीय जनता पार्टी, जिसे 85 सीटें मिली थीं। यह वह नया दल था जिसे 1984 के चुनाव में सिर्फ दो सीटें मिली थीं, सौ से ज्यादा उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई थी। चौथे नंबर पर थी सीपीआई-एम, जिसे 33 सीटें मिली थीं।

इस चुनाव में सिर्फ दो अन्य दल ऐसे थे, जिन्हें दहाई में सीटें मिली थीं। एक सीपीआई, जिसे 12 सीटें मिली थीं और दूसरी एआईएडीएमके जिसे 11 सीटें मिली थीं। बाकी सभी दल इकाई में ही संसद पहुंचे। सबसे बड़े दल कांग्रेस ने विपक्ष में बैठने का फैसला सुनाया तो दूसरे दल पर सरकार बनाने की जिम्मेदारी आ गई। भाजपा-सीपीआई-एम ने उसे बाहर से समर्थन देने का फैसला लिया तो केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनने का रास्ता साफ हो गया।

इस तरह वीपी सिंह बने प्रधानमंत्री

यह तय था कि वीपी सिंह ही विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा थे लेकिन पीएम बनने का रास्ता उनके लिए एकदम आसान नहीं था। क्योंकि उनके अपने ही गठबंधन में चंद्रशेखर, चौधरी देवीलाल समेत कई ऐसे नेता थे जो प्रधानमंत्री बनने की फिराक में थे। राजनीति चरम पर थी। सब अपने-अपने तरीके से अपने और अपनों के पक्ष में गिरोहबंदी कर रहे थे। इसका रोचक खुलासा कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में विस्तार से किया है। उनके मुताबिक चंद्रशेखर किसी भी सूरत में नहीं चाहते थे कि वीपी सिंह पीएम बनें। इसके लिए उन्होंने अनेक तरीके से किलेबंदी भी कर रखी थी।

जब जनता दल संसदीय दल की बैठक नेता के चुनाव के लिए हुई तो उसमें क्षण भर को लगा कि चंद्रशेखर कामयाब भी हो गए क्योंकि जनता दल के बड़े नेता दंडवते ने पीएम के लिए चौधरी देवी लाल का नाम प्रस्तावित किया। बकौल नैयर-चंद्रशेखर ने इसका अनुमोदन कर दिया। इस तरह देवीलाल का प्रधानमंत्री बनना तय हो गया। यूएनआई ने खबर भी फ्लैश कर दी लेकिन असली खबर आना बाकी थी। जब चौधरी देवीलाल की बारी आई तो वे अपनी जगह से उठे। वीपी सिंह के नाम का प्रस्ताव कर दिया। सदन में सन्नाटा छा गया। सबको लगा कि नेता सदन का चुनाव हो जाने के बाद देवीलाल ऐसा क्यों कर रहे हैं? तनिक सन्नाटे के बाद अजीत सिंह उठे और उन्होंने वीपी सिंह के नाम का अनुमोदन कर दिया।

एक साल बाद चंद्रशेखर बने पीएम

अब सन्नाटे में आने की बारी चंद्रशेखर की थी। उसके बाद वे अपने ऑपरेशन में जुटे। वीपी सिंह बमुश्किल एक साल भी पीएम की कुर्सी पर नहीं रह सके। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा बिहार पहुंची तो लालू प्रसाद यादव ने उन्हें गिरफ्तार करवा लिया। परिणामस्वरूप भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। सरकार अल्पमत में आ गई। इस बीच जनता दल टूट गया और चंद्रशेखर के नेतृत्व में 64 सांसद अलग हो गए और समाजवादी जनता पार्टी का गठन कर लिया। इस नए दल को कांग्रेस ने बाहर से अपना समर्थन दे दिया और इस तरह देखते ही देखते 10 नवंबर 1990 को चंद्रशेखर ने पीएम पद की शपथ ले ली। सरकार उनकी भी सिर्फ कुछ महीने ही चली क्योंकि कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। इस तरह देश एक और मध्यावधि चुनाव में पहुंच गया

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