वो चुनाव, जब अमेठी में कांग्रेस ने पहली बार 'चखी' हार; BJP बड़ी पार्टी बनकर उभरी, पर बहुमत से रही दूर
दिनेश पाठक, वरिष्ठ पत्रकार
Lok Sabha Election Throwback: लोकसभा चुनाव 2024 की सरगर्मियों के बीच बात करते हैं, 12वें लोकसभा चुनाव की, जब देश को मध्यावधि चुनाव की आदत लग चुकी थी। 1998 में भारत निर्वाचन आयोग ने 12वीं लोकसभा चुनाव की घोषणा की। सभी दलों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी कि बहुमत उनके पक्ष में आ जाए, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं।
हां, भाजपा तब तक के चुनावी इतिहास में सबसे ज्यादा 182 सीट जीतने में कामयाब रहीं और वोट प्रतिशत भी बढ़ा। कांग्रेस को भाजपा से थोड़े ज्यादा वोट मिले और एक सीट का इजाफा भी हुआ, मतलब कुल 141 सीटें उसके खाते में आईं। भाजपा बहुमत से 90 सीटें दूर रही। इन दोनों दलों के अलावा पार्टियों ने दहाई में ही सीटें जीतीं, लेकिन विपक्ष के पास कुल 150 सीटें थीं, यही कारण था कि भाजपा या कांग्रेस में से किसी को बहुमत नहीं मिला और एक बार फिर साल 1996 की तरह हंग पार्लियायमेंट का विकल्प देश के सामने था।
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अटल दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, सिर्फ 13 महीने चली सरकार
सबसे बड़ा दल होने की वजह से भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर प्रधानमंत्री दूसरी बार शपथ ली। उन्हें कई दलों का समर्थन मिला। यह और बात है कि साल 1996 में अटल बिहार वाजपेयी सिर्फ 13 दिन प्रधानमंत्री रहे और इस बार भी वे सिर्फ 13 महीने ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ सके। इस बीच उन्होंने पोखरण परमाणु परीक्षण जैसा कठिन फैसला करने में कामयाब रहे। उनकी सहयोगी पार्टी AIADMK ने अचानक समर्थन वापस ले लिया और अटल सरकार अल्पमत में आ गई।
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वोट के मामले में भाजपा-कांग्रेस लगभग बराबरी पर रहे
1998 का लोकसभा चुनाव पहला ऐसा चुनाव था, जब भाजपा ने कांग्रेस को देशभर में मात दी थी। पहली बार दोनों दलों को 17 राज्यों में सीटें मिलीं। केंद्र शासित प्रदेशों में सीट पाने में भाजपा आगे निकल गई। उसे 4 केंद्र शासित प्रदेश से सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस को 3 केंद्र शासित प्रदेशों से सीट जीतने में कामयाबी मिली थी।
इस चुनाव में कांग्रेस को देशभर में 25.82 फीसदी मत मिले थे तो भारतीय जनता पार्टी को 25.59 परसेंट वोट मिले थे। दोनों लगभग बराबरी पर आ गए थे। भारतीय जनता पार्टी के नेता उत्साह से भरे हुए थे, क्योंकि 14 साल की पार्टी की यात्रा 2 सांसदों से होते हुए 182 तक का सफर तय कर चुकी थी। उन्हें संकेत मिलने लगे थे कि वे अब आगे जाएंगे। इस चुनाव में 62 फीसदी लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया था।
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छोटे दलों की संसद में पहुंच बढ़ी
1998 के चुनाव में CPIM तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उसके 32 सांसद सदन में पहुंचे। मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी को 20 सीटें मिलीं। जयललिता के नेतृत्व वाली AIADMK को 18 सीटें, लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल को 17 सीटें, संत पार्टी और TDP को 12-12 सीटें मिलीं। करीब दर्जनभर राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दल ऐसे रहे, जिन्हें 10 के अंदर सीटें मिल गईं। मतलब यह हुआ कि यह चुनाव क्षेत्रीय दलों को मजबूती देने वाला रहा। लगभग ऐसे ही परिणाम साल 1996 के चुनाव में भी आए थे, जब क्षेत्रीय दलों ने संसद में मजबूत दस्तक दी थी।
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अमेठी सीट पर भाजपा ने लहराया था अपना परचम
1998 का लोकसभा चुनाव ही था, जब कांग्रेस की परंपरागत अमेठी सीट उससे छिन गई थी और भाजपा के खाते में चली गई थी। यहां से कांग्रेस के सतीश शर्मा चुनाव हार गए थे। संजय सिंह जीत गए थे। स्मृति ईरानी दूसरी कैंडिडेट थीं, जिन्होंने भाजपा के टिकट पर 2019 के चुनाव में कांग्रेस के राहुल गांधी को हराकर जीत दर्ज की थी। नारायण दत्त तिवारी जैसे बड़े कद के नेता नैनीताल से चुनाव हार गए थे। अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से चुनाव जीतने में कामयाब रहे। उन्होंने फिल्म निर्माता-निर्देशक मुजफ्फर अली को हराया था, वे समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे थे।
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मेनका गांधी उत्तर प्रदेश की पीलीभीत से निर्दलीय कैंडिडेट के रूप में चुनाव जीतने में कामयाब रही थीं। उसके बाद वे भाजपा में शामिल हो गई थीं। अटल सरकार की सरकार सिर्फ 13 महीने ही चली थी कि जयललिता की पार्टी ने उनसे अपना समर्थन वापस ले लिया। भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने जोड़ तोड़ करने की बजाय चुनाव में जाने का फैसला किया और 13वीं लोकसभा का चुनाव 1999 में हुआ, जिसमें भाजपा ने NDA का गठन बनाकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। उसे कामयाबी भी मिली। अटल बिहारी वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और पूरे 5 साल उनकी सरकार चली।
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