पश्चिम बंगाल में आदिवासी समाज ने खेली पानी से होली, जानें क्या है इसके पीछे की वजह?
अमर देव पासवान, आसनसोल।
देश में आज होली का त्योहार हर्ष और उत्साह के साथ मनाया गया। जहां एक तरफ लोगों ने एक दूसरे को रंग और गुलाल लगाकर रंगों का त्योहार मनाया वहीं, दूसरी ओर पश्चिम बंगाल के आसनसोल में आदिवासी समाज ने इस त्योहार को रंगों और गुलालों से नहीं बल्कि पानी से मनाया।
पौराणिक परंपरा के तहत मनाई होली
इस बारे में आदिवासी समाज के एक सदस्य स्वपन मुर्मू ने बताया कि आसनसोल में भी आदिवासी समाज ने अपनी पौराणिक परंपरा के तहत पानी की होली मनाई। उन्होंने कहा कि फाल्गुन महीने के पहले दिन से ही उनके बाहा पर्व की शुरुआत हो जाती है। उन्होंने बताया कि बाहा पर्व में आदिवासी समाज साल के पेड़ और उसके फूल और पत्ते की पूजा करते हैं।
'आदिवासी समाज साल के पेड़ को पवित्र मानता है'
स्वपन आगे कहते हैं कि साल के पेड़ को उनके समाज में बहुत ही पवित्र माना जाता है और इस पेड़ को उनका समाज भगवान की तरह पूजा करता है। उन्होंने बताया कि पूजा से पहले आदिवासी समाज के लोग पहले नाई के पास जाते हैं। जहां कोई अपने नाखून, कोई अपनी बाल और कोई अपनी दाढ़ी-मूंछ बनवाता है। इसके बाद स्नान की प्रक्रिया शुरू होती है। फिर कुंवारे लड़के बाहा पूजा के लिए मंडप बनाते हैं। यह मंडप साल के पेड़ की डाली से बनती है और बिचाली से उस मंडप की छत तैयार की जाती है।
मुर्गे की दी जाती है बलि
उन्होंने बताया इसके बाद मेथी की पानी से आदिवासी समाज के ईष्ट देवता को स्नान करवाया जाता है और फिर साल के फूल चढ़ाकर एवं मुर्गे की बलि देकर बाहा पर्व मनाया जाता है। इस दौरान रात्रि विश्राम के समय आदिवासी समाज के सभी सदस्य जमीन पर सोते हैं। उन्होंने बताया कि विधिवत् तरीके से प्रसाद तैयार किया जाता है और प्रसाद को समाज में बांटा जाता है।
बाहा पर्व के बाद होता है होली का आयोजन
स्वपन बताते हैं कि बाहा पर्व के दौरान उनके ईस्ट देवता कुंवारे भक्त के ऊपर प्रकट होते हैं, उनकी समस्याओं को सुनते हैं, समस्याओं का समाधान करते हैं और उनको आशीर्वाद देते हैं। उन्होंने बताया कि बाहा पर्व खत्म होने के अगले दिन समाज के लोग होली का आयोजन करते हैं। इस होली में उनके समाज के सभी लोग उपस्थित होते हैं।
होली में रंग-गुलाल का नहीं होता इस्तेमाल
उन्होंने बताया कि आदिवासी समाज की इस होली में किसी तरह का रंग और गुलाल का इस्तेमाल नहीं किया जाता है बल्कि पानी से होली खेली जाती है। साथ ही पलाश के फूल से होली खेली जाती है। उन्होंने बताया कि इस दौरान आदिवासी समाज के लोग पलाश के फूल से बनी माला पहनते हैं और श्रृंगार करते हैं। स्वपन ने कहा कि होली के इस त्योहार में रंग और गुलाल ही नहीं बल्कि धूल-मिट्टी भी कोई एक दूसरे पर नहीं लगा सकता।
क्यों ऐसा करता है आदिवासी समाज?
उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि आदिवासी समाज प्रकृति को अपने जीवन में बहुत ही ज्यादा महत्व देता है। रंग और गुलाल तो दूर की बात धरती का धूल भी सिंदूर के रूप मे जाना जाता है। अगर गलती से भी आदिवासी समाज की कुंवारी लड़कियों के माथे पर किसी युवक के हाथों धूल का एक कण भी चला गया तो आदिवासी समाज में उसको विवाह माना जाता है। यही कारण है कि आदिवासी समाज मे रंग, गुलाल, धूल और मिट्टी से होली खेलने की कोई परंपरा नहीं है। उन्होंने बताया कि आदिवासी समाज के लोग पानी से ही होली खेलते हैं। इसके अलावा समाज के कुंवारे युवकों को कुंवारी युवतियों के साथ होली खेलने की साफ तौर पर मनाही होती है। हालांकि, कोई रिश्तेदार हो तो उस पर ये शर्तें लागू नहीं होती। रिश्तेदार अपने रिश्तेदारों के साथ पानी की होली खेल सकते हैं।