5 Day Working Culture से दूर, 70 घंटे काम करना आखिर क्यों जरूरी!
Opinion Over Narayana Murthy Working Hour Formula: हफ्ते में 70 घंटे काम करना आखिर क्यों जरूरी है! टॉपिक का यह हेडलाइन पढ़ने के बाद ज्यादातर रीडर्स को लगेगा कि इसमें जरूरी के बाद ‘नहीं’ शब्द होना बेहद जरूरी है। कई रीडर्स इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद ट्रोल भी करेंगे, पर कभी-कभी कुछ विषयों पर दिल से लिखना इसलिए जरूरी होता है, ताकि किसी कथन का मर्म समझाया जा सके। जुनून से ही असंभव दिखने वाले काम पूरे करने की कोशिश की जा सकती है।
यहां बात हो रही है, IT दिग्गज नारायण मूर्ति द्वारा दिए गए एक बयान पर, जिसमें उन्होंने किसी विकासशील देश की प्रगति में वहां की वर्कफोर्स द्वारा 5 डे वर्किंग कल्चर अपनाने पर निराशा जताई है। गौरतलब है कि इससे पहले कुछ महीने पहले उन्होंने एक इंटरव्यू में भी युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करने की बात कही थी, जिसके बाद यह चर्चा प्रोफेशनल्स के बीच हो रही है कि कोई कैसे 6 डे वर्किंग कल्चर या 70 घंटे प्रति सप्ताह काम कर सकता है? इसे लेकर नारायण मूर्ति को ट्रोल भी किया जा रहा है। यहां बात 70-72 या 69 घंटे या हफ्ते में 6 दिन काम करने की नहीं है, बल्कि बात है काम के प्रति समर्पण भाव की। वैसे भी लीडरशिप रोल में काम करने वाले अधिकांश प्रोफेशनल 10 से 12 घंटे काम तो करते ही हैं, पर अहम बात यह है कि अगर सभी प्रोफेशनल काम के प्रति इतना समर्पण दिखाएं तो भारत अपने कॉम्पिटिटर्स को तगड़ा झटका दे पाएगा।
बड़े लक्ष्य के लिए सोच काफी नहीं, कुछ अलग करना होगा
मिस्टर मूर्ति ने कुछ महीने पहले उदाहरण देकर बताया कि जब जर्मनी और जापान विश्व युद्ध के बाद खराब स्थिति में था तो वहां की लीडरशिप और कॉर्पोरेट ने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि देश के लोग अपने परिश्रम के घंटे बढ़ाएं और देश को मजबूत बनाएं। हम आंकड़ों की बात करें तो अगर आप एक दिन का वीकली ऑफ लेते हैं तो आपको 12 घंटे रोज काम करना पड़ेगा। अगर आप 7 दिन काम करते हैं तो आपको 10 घंटे नियमित काम करना होगा। यकीन मानिए यह आंकड़े देखने में मुश्किल लगते हैं, पर अगर आप ठान लेते हैं तो यह परिश्रम आपके जीवन जीने की आदत का हिस्सा बन जाता है। बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए केवल बड़ी सोच से ही काम नहीं चलता, कुछ अलग और अनोखा करना पड़ता है और यहां तो बात केवल काम के घंटों में कुछ इजाफा करने की है।
समय और हालात के अनुसार कई बार फैसले लेने पड़ते
वैसे भी नारायण मूर्ति ने वेस्टर्न कल्चर से प्रभावित न होते हुए परिश्रम और दृढ़ता की USP वाले भारतीयों को सिर्फ चेताया है। 5 दिन का वर्क कल्चर, वर्क लाइफ बैलेंस जैसे शब्द भारत में कुछ ही सालों से सुनने को मिल रहे हैं। प्रोफेशनलिज्म अच्छी बात है, पर कई बार समय-काल और परिस्थितियों के अनुरूप फैसले लेने पड़ते हैं। अगर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके साथियों ने भी ऐसे ही शब्दों को प्राथमिकता दी होती तो क्या आज हम आजाद भारत में रह पा रहे होते? वैसे आज नारायण मूर्ति के इस बयान ने मुझे अपने पूर्व बॉस डॉ. अनुराग बत्रा की आगामी किताब ‘Eight Days In A Week’ की भी याद दिला दी। किताब में बताया गया है कि कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वालों के लिए काम का कोई वक्त नहीं होता। उनके लिए हर वक्त काम का ही होता है। यहां काम करने के घंटों का मतलब काम के प्रति आपके जुनून और समर्पण से लगाया जा रहा है। वैसे भी हमारे यहां कहा भी जाता है कि बड़ा बनने में जीवन खप जाता है तो ऐसे में हमें समझना होगा कि यदि हमें चीन को पछाड़ना है तो हमारे युवाओं को अपनी असली ताकत को पहचानना होगा। हम जिन विकसित देशों का वीजा पाने की चाहत रखते हैं, वहां के लोगों ने ऐसा कर दिखाया है। शक्तिशाली देश बनाने के लिए उसकी जनता को कई बार औसत से अधिक परिश्रम करना होता है।
USP मेहनत है, उसे नकार नहीं सकते
भारत की दृष्टि से मिस्टर मूर्ति का यह बयान और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि 142 करोड़ लोगों वाले भारत देश में ऐवरेज ऐज 28 साल है, जबकि चीन में 39 और जापान में 49 साल है, लेकिन जब इन दोनों देशों में युवाओं की संख्या ज्यादा थी तो उन्होंने दिन-रात काम करके अपने देश को विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा कर दिया। इस कारण जब आज इस देश की ऐवरेज एज बढ़ी तो भी वहां संपन्नता अधिक है। सोचिए 12.5 करोड़ आबादी वाले जापान की अर्थव्यवस्था 347 लाख करोड़ के साथ दुनिया में तीसरे नंबर पर है तो 91 करोड़ कामगारों वाले चीन की अर्थव्यवस्था 1587 लाख करोड़ पर, 92 करोड़ कामगारों वाले भारत की सिर्फ 306 लाख करोड़ है।
तरक्की की नई कहानी के लिए नई रेखाएं खींचनी होंगी
अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी का कारण मेहनत के साथ-साथ अन्य फैक्टर भी हैं, पर परिश्रम को नकारा नहीं जा सकता है। 1905 में जब अमेरिका विकसित देश नहीं था तो वहां के निवासी 60 घंटे प्रति हफ्ते के हिसाब से काम करते थे। ऐसे ही जापान के निर्माणकाल में भी उसके सिटिजंस का 65 से 70 घंटों का योगदान था, लेकिन आज अमेरिका समृद्धशाली है तो वहां औसतन कर्मचारी 35 घंटे ही काम करते हैं। तरक्की की नई कहानी लिखनी है तो कई नई रेखाएं खींचनी ही होंगी, लेबर लॉ को भी समझना होगा और बदलना भी होगा। इसका हालिया उदाहरण है साउथ कोरिया, जहां 40 घंटे प्रति सप्ताह काम के घंटे की प्रथा को बदलकर 69 घंटे करने की वकालत तेजी से चल रही है। अधिकांश प्रोफेशनल्स इन तर्कों से नाखुश होंगे।
भारत की वर्क प्रॉडक्टिविटी में अभी सुधार की जरूरत
दरअसल, उनका मानना है कि Eat, Drink, Be Merry के फलसफे के साथ जीवन जीना चाहिए। जितनी सैलरी, उतना काम जैसे लॉजिक भी मिस्टर मूर्ति की बात को काटने के लिए दिए जा रहे हैं, पर यहां बात किसी को सही-गलत साबित करने की नहीं है। बात है राष्ट्र निर्माण की और वह भी तभी संभव हो पाएगा, जब इन्डिविजुअल से लेकर ऑर्गेनाइजेशन तक सब एक ही पिच पर दिन-रात काम में जुटे और ऐसे नतीजे दें, जो आश्चर्यचकित करने वाले हों। चलते-चलते एक ओर पहलू को समझिए कि अभी हमारी वर्क प्रॉडक्टिविटी में कितने सुधार की जरूरत है। भारत का हर व्यक्ति प्रति घंटे 705 रुपये जोड़ता है अर्थव्यवस्था में, वहीं चीन में यह आंकड़ा 1200 रुपये, जापान में 3200 रुपये, फ्रांस में 4800 रुपये और अमेरिका में 6000 रुपये है।
देश आगे बढ़ेगा तो इसका फायदा देशवासियों को ही होगा
कुछ लोगों का मानना है कि काम का घंटों में बांधकर नहीं, बल्कि उत्पादकता के हिसाब से आंकलन किया जाना चाहिए। यह सही है कि उत्पादकता, गुणवत्ता मायने रखती है और बिना इसके मात्रा कितनी भी हो कोई मतलब नहीं, लेकिन सोचिये गुणवत्तापूर्ण काम की अवधि को यदि थोड़ा बढ़ाया जाए तो यह थोड़ा-थोड़ा मिलकर दिन के अंत में काफी बड़ा हो सकता है और यही भविष्य की दौड़ में देश को सबसे आगे रखने के लिए ज़रूरी है। अब जब देश अव्वल आएगा तो फायदा तो आपको भी मिलेगा ही।