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आस्तिक मुनि ने रुकवा दिया जनमेजय का नागदाह यज्ञ, वरना धरती पर न होते एक भी सांप या कोबरा...जानें पूरी कहानी
Janmejay ka Nag Yagya: जनमेजय का नागदाह यज्ञ भारतीय पौराणिक कथाओं का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। यह कथा महाभारत के बाद के काल की है। कलियुग ने द्वापर को अपने चंगुल में लेना शुरू कर दिया था। तभी तीनों लोकों के सर्पों और नागों पर एक महान संकट आ गया था। वासुकि, तक्षक यहां तक कि शेषनाग सहित एक भी सर्प या नाग न बचता, यदि आस्तिक मुनि ने जनमेजय के यज्ञ को अपने तपोबल से न रोक दिया होता। आइए नाग पंचमी के पावन अवसर पर विस्तार से जानते है कि जनमेजय के नागदाह यज्ञ की पूरी कथा क्या है?
कलियुग से परीक्षित के विचारों हुए दूषित
राजा परीक्षित अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र थे। महाभारत युद्ध के बाद और पांचों पांडवों के शासन के बाद परीक्षित हस्तिनापुर के राजा बने। एक दिन राजा शिकार के लिए जंगल गए, जहां उन्हें बहुत तेज प्यास लगी। वे उसी जंगल में शमिक ऋषि के आश्रम में गए, जो उस समय ध्यान में लीन थे। राजा ने पानी के लिए आवाज लगाई। राजा के मुकुट में कलियुग के बैठे होने की वजह से राजा परीक्षित को लगा कि ऋषि ध्यान में होने का नाटक कर उनका अपमान कर रहे हैं। वे क्रोधित हो गए और ऋषि शमिक के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया।
श्रृंगी ऋषि ने दिया श्राप
उसी समय नदी से स्नान कर लौट रहे ऋषि शमिक के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने जब पिता के गले में मरा सांप देखा तो वे क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने कमंडल से अपनी अंजुली में जल लेकर उसे मन्त्रों से अभिमंत्रित किया और राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया, "तुझे आज से सातवें दिन तक्षक नाग डसेगा।"
होनी को टाल न सके परीक्षित
ध्यान के बाद जब ऋषि शमिक को पूरी घटना की जानकारी हुई, तो वे बहुत दुखी हुए। उन्होंने स्वयं हस्तिनापुर जाकर राजा परीक्षित को इस श्राप के बारे में जानकारी दी। राजा परीक्षित ऋषि की सलाह पर महल में बेहद सुरक्षित जगह पर रहने लगे, जहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। लेकिन कहते हैं कि ऋषि श्रृंगी का श्राप टल नहीं सका। ठीक सातवें दिन फूलों की टोकरी में कीड़े के रूप में छुपकर आए तक्षक नाग ने राजा परीक्षित को काट लिया और उनकी मृत्यु हो गई।
यज्ञ के हवन कुंड में भस्म होने लगे सांप
जब राजा परीक्षित के के सबसे छोटे पुत्र जनमेजय को अपने पिता की मृत्यु का कारण पता चला तो वह दुखी होने के साथ-साथ क्रोधित हो उठा। उसने संपूर्ण सर्प जाति के विनाश करने का प्रण लिया। इसके लिए उसने अपने पुरोहितों को नागदाह यज्ञ का अनुष्ठान करने का आदेश दिया। यह यज्ञ इतना शक्तिशाली था कि इसका असर तीनों लोकों पर पड़ा।
इस यज्ञ के प्रभाव से धरती के सभी सर्प नाग एक के बाद एक-एक कर हवन कुंड में आकर गिरने लगे और भस्म होने लगे। यज्ञ की अग्नि स्वर्ग तक जा पहुंची, क्योंकि तक्षक नाग भयभीत होकर स्वर्ग लोक पहुंच गए थे। उन्होंने भगवान इंद्र से सहायता मांगी और वहीं रहने लगे। लेकिन यज्ञ के बल से तक्षक धरती की खिंचे जा रहते थे, तब तक्षक इंद्र के सिंहासन से लिपट गए, जिससे इंद्र सिंहासन सहित पृथ्वी की ओर गिरने लगे।
आस्तिक मुनि ने तपोबल से रोक दिया यज्ञ
तब इंद्र भगवान ने सभी सर्पों की माता मनसा देवी से सहायता मांगी। तब माता मनसादेवी के पुत्र प्रतापी पुत्र आस्तिक मुनि ने यज्ञ स्थान पर पहुंच कर यज्ञ की अग्नि में गिरते हुए तक्षक को अपने तपोबल से आकाश में ही रोक दिया।
इसके बाद आस्तिक मुनि ने बहुत विनम्र शब्दों में राजा जनमेजय नागदाह यज्ञ बंद करने के लिए समझाया। उन्होंने ने जनमेजय को कहा, “हे राजन, सभी सर्पों और नागों को नष्ट करना पाप है और इससे संसार में असंतुलन पैदा होगा, स्वयं पृथ्वी इससे नष्ट हो जाएगी।” आस्तिक मुनि की कोमल और विनम्र वाणी और उनके तपोबल से राजा बहुत प्रभावित हुए और वे यज्ञ रोक देने पर सहमत हो गए। इस प्रकार तक्षक सहित सर्पों और नागों की जान बची और सर्प जाति पूरी तरह से नष्ट होने से बच गई।
आस्तिक मुनि से सर्पों-नागों से लिया वचन
आस्तिक मुनि के प्रयास और संकल्प से नाग और सांप तो बच गए, लेकिन इसके बदले में सर्पराज वासुकि को सभी सर्पों की ओर से यह वचन देना पड़ा कि जो मनुष्य सांप को देखने के बाद आस्तिक मुनि के नाम का स्मरण करेगा, उस कोई सर्प भय नहीं होगा। धार्मिक ग्रंथों में एक मंत्र का उल्लेख हुआ है जिसके बारे में मान्यता है कि जो व्यक्ति इस मंत्र का उच्चारण करता है, उस व्यक्ति को सांप या नाग नहीं डस सकता है, अन्यथा सांप का सिर सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।
“सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष। जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते। शतधा भिद्यते मूर्ध्नि शिंशवृक्षफलं यथा।।
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