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मां से म‍िली उपेक्षा...गुरु से शाप और इंद्र से छल, जानें कर्ण से जुड़ी अनसुनी कहान‍ियां

Mahabharata Story: पांडव 5 नहीं 6 भाई थे। ये चौंकाने वाली बात जरुर है, लेकिन झूठ नहीं है। कर्ण थे छठे और सबसे बड़े पांडव। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सहित कर्ण भी रानी कुंती के पुत्र थे। आइए जानते हैं, कर्ण के जीवन से जुड़ी कुछ अनसुनी कहानियां।
07:35 AM Aug 01, 2024 IST | Shyam Nandan
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Mahabharata Story: कर्ण महाभारत का एक ऐसा पात्र है, जिसके साथ भाग्य ने हमेशा धूप-छांव का खेल खेला है। राजघराने में जन्म, सारथि के यहां लालन-पालन; प्रखर मेधावी लेकिन शिक्षा का अभाव; फिर एक गुरु मिले, दी शिक्षा पर दे डाला शाप; मनुष्यों ने भी छला और देवताओं ने भी...दरअसल, कर्ण के साथ नियति ने क्रूर मजाक किया था, उसका जीवन विसंगतियों का जीवन था। आइए जानते हैं, कर्ण के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक और अनसुनी कहानियां।

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कैसे हुआ कर्ण का जन्म?

कर्ण का जन्म कुंती को मिले एक वरदान से हुआ था। जब कुंती कुंआरी थी, तब दुर्वासा ऋषि ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर 'देवहुति मंत्र' दिया था। दरअसल, दुर्वासा ऋषि ने यह जान लिया था कि कुंती का विवाह पांडु से होगा, जिससे संतान नहीं होगी। एक दिन कुंती ने सिर्फ मंत्र का परीक्षण करने के लिए खेल ही खेल में सूर्यदेव को बुला लिया और बिना विवाह के ही मां बनना पड़ा। लेकिन राजमर्यादा और लोकलाज के कारण कुंती ने अपनी पहली संतान कर्ण को जन्म होते ही गंगा में बहा दिया। आपको जानकार हैरानी होगी कि विश्व इतिहास में कर्ण पहला मानव शिशु था, जो नंगा नहीं बल्कि कवच-कुंडल के साथ पैदा हुआ था।

इसलिए कवच-कुंडल के साथ पैदा हुआ कर्ण

पूर्व जन्म में कर्ण दुरदुंभ नामक एक राक्षस था, जिसे वरदान था, उसी केवल वही मार सकता है, जिसने एक हजार वर्ष तक तपस्या की हो। साथ ही, उसने सूर्यदेव को प्रसन्न कर 100 कवच और दिव्य कुंडल प्राप्त रखा था। जो भी उसका एक भी कवच तोड़ता, उसकी भी मृत्यु हो जाती। दुरदुंभ ने इन वरदानों और शक्तियों के बल पर तीनों लोकों में आतंक मचा रखा था। तब देवताओं की गुहार पर भगवान विष्णु ने नर और नारायण को युद्ध के लिए भेजा।

नर और नारायण ने तोड़ डाले 99 कवच

दुरदुंभ राक्षस से पहले नर ने युद्ध किया और नारायण तपस्या करते रहे। नर ने जैसे ही दुरदुंभ का एक कवच तोड़ा, उनकी की मृत्यु हो गई। तब नारायण उठे और तपस्या के फल से नर को जीवित कर दिया। फिर, नारायण युद्ध करने लगे और नर तपस्या में लीन हो गए। जैसे नारायण ने राक्षस का दूसरा कवच तोडा, उनकी भी मृत्यु हो गई। लेकिन उन्हें नर ने तप के फल से फिर जीवित किया। इस तरह युद्ध लगातार चलता रहा। नर-नारायण एक-एक करके युद्ध करते रहे, कवच तोड़ कर मरते रहे, एक-दूसरे को जीवित करते रहे और इस तरह उन्होंने 99 कवच तोड़ डाले।

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सूर्य की शरण में पहुंचा दुरदुंभ

अपने 99 कवच टूट जाने से भयभीत दुरदुंभ ने सूर्यदेव की शरण ली। सनातन धर्म में किसी शरणागत को मारना कहीं से उचित नहीं है, इसलिए नर-नारायण ने सूर्यदेव से कहा, "हे सूर्यदेव! इसे शरण देने का फल आपको भी भुगतना होगा। अब यह राक्षस आपके तेज से द्वापर युग में कवच-कुंडल के साथ जन्म लेगा, लेकिन वे मृत्यु के समय इसके काम नहीं आएंगे।" इस प्रकार कुंती से कवच-कुंडल के साथ जन्मा कर्ण वही राक्षस था।

गुरु से भी मिला श्राप

कर्ण ने युद्ध-कौशल की शिक्षा भगवान परशुराम से प्राप्त किया था। हालांकि, इसके लिए कर्ण ने झूठ बोला था कि वह ब्राह्मण है, क्योंकि परशुराम केवल ब्राह्मणों को शिष्य बनाते थे। एक दोपहर गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। तभी कहीं से एक बिच्छू आया और कर्ण की जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु आराम में खलल न पड़े इसलिए कर्ण बिच्छू को दूर न हटाकर उसके डंक को सहता रहा।

जब परशुराम की निद्रा टूटी और उन्होंने देखा की कर्ण की जांघ से रक्त की धारा बह रह रही थी। उन्होंने कहा कि तुम ब्राह्मण तो कतई नहीं हो सकते, इतनी सहनशीलता किसी क्षत्रिय में ही हो सकती है। फिर क्रोधित परशुराम उसे झूठ बोलने के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी।

इंद्र ने छल से ले लिया कर्ण का कवच-कुंडल

भगवान कृष्ण यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि जब तक कर्ण के पास कवच और कुंडल हैं, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। अर्जुन देवराज इंद्र के पुत्र थे. इंद्र भी इस बात को लेकर चिंता में रहते थे कि कवच-कुंडल के रहते अर्जुन की पराजय निश्चित थी। तब भगवान कृष्ण ने कर्ण की दानवीरता की आड़ में छल का सहारा लिया। उन्होंने ने इंद्र को उपाय सुझाया कि वे ब्राह्मण भिक्षुक का वेश धरकर कर्ण से वे कवच-कुंडल भिक्षा में मांग लें।

दरअसल, कर्ण का हर रोज का नियम था कि वह प्रातः काल में गंगा स्नान करने के बाद सूर्यदेव को अर्घ्य देता था। फिर पूजन की समाप्ति के तुरंत बाद जो भी उससे कुछ भी मांगता, कर्ण बिना संकोच उसे वह दान दे देता था। श्रीकृष्ण की सलाह पर इंद्र ने कर्ण की इसी अच्छाई का फायदा उठाया और कर्ण से उसके कवच और कुंडल दान में प्राप्त कर लिए। इस तरह अर्जुन की जान बचना तो सुनिश्चित हो गया, लेकिन कर्ण की जान असुरक्षित हो गई।

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डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी ज्योतिष शास्त्र की मान्यताओं पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।

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