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Rama Ekadashi 2024: भगवान कृष्ण ने स्वयं सुनाई थी रमा एकादशी की कथा, यहां पढ़ें इस व्रत की असली कथा!

Rama Ekadashi 2024 Asli Vrat Katha: कार्तिक मास की महापुण्यदायी रमा एकादशी व्रत आज 28 अक्टूबर को है, जिसकी पूजा शाम में की जाती है। रमा एकादशी का व्रत रखने वाले भक्त को इस एकादशी की व्रत कथा अवश्य सुननी-पढ़नी चाहिए, अन्यथा पूजा अधूरी मानी जाती है। आइए जानते हैं, रमा एकादशी की असली कथा।
11:03 AM Oct 28, 2024 IST | Shyam Nandan
rama ekadashi 2024  भगवान कृष्ण ने स्वयं सुनाई थी रमा एकादशी की कथा  यहां पढ़ें इस व्रत की असली कथा

Rama Ekadashi 2024 Asli Vrat Katha: रमा एकादशी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की बेहद फलदायी एकादशी है। भगवान विष्णु को समर्पित यह पुण्यदायी एकादशी, धनतेरस और दिवाली से पहले आता है। इसकी एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इसका पारण गोवत्स द्वादशी के दिन किया जाता है। इसलिए इस एकादशी पर गऊ पूजन का भी विधान है। वहीं, भगवान श्री हरि विष्णु अभी गहन शयन अवस्था हैं। उनके शयन अवस्था उनकी पूजा का यह अंतिम एकादशी है। इसके 15 दिन बाद देवोत्थान या देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु नींद से जागेंगे।

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कार्तिक मास की यह महापुण्यदायी और मोक्ष प्रदान करने वाली रमा एकादशी व्रत आज 28 अक्टूबर को है, जिसकी पूजा शाम में की जाती है और व्रत कथा सुनी जाती है। मान्यता है कि इस एकादशी का व्रत रखने वाले व्रती यानी भक्त और साधक को इस एकादशी की व्रत कथा अवश्य सुननी-पढ़नी चाहिए, अन्यथा पूजा अधूरी मानी जाती है। इस कथा को सुनने की एक और वजह यह है कि इस व्रत की कथा और माहात्म्य स्वयं भगवान योगेश्वर कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाया था। इसलिए पढ़ने और सुनने मात्र से पुण्यफल प्राप्त होता है। आइए जानते हैं, रमा एकादशी की असली कथा।

रमा एकादशी व्रत की असली कथा

धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा, “हे भगवन! कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि क्या है? इसके करने से क्या फल मिलता है। सो आप विस्तारपूर्वक बताइए।”

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युधिष्ठिर ये परम वचन सुनकर भगवान श्रीकृष्ण बोले, “हे राजन! कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूं, ध्यानपूर्वक सुनो।”

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भगवान श्रीकृष्ण कहा, “हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी रमा एकादशी भी आने वाली थी।”

उन्होंने कहा, “जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई।”

शोभन ने अपनी पत्नी चंद्रभागा से कहा, “हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूंगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएंगे।”

यह सुनकर चंद्रभागा ने पति से कहा, “हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊंट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा।”

ऐसा सुनकर शोभन ने अपनी पत्नी से कहा, “हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूंगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।”

इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों के साह छत्र और चंवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।

एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणाम आदि करके कुशल प्रश्न किया।

ब्राह्मण ने कहा, “राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं। परंतु, हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।”

तब शोभन बोले, हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए।”

यह सुनकर ब्राह्मण सोम शर्मा ने कहा, “हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए।”

शोभन ने कहा “मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।”

ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं।” ब्राह्मण कहने लगा “हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।”

चंद्रभागा कहने लगी, “हे विप्र! तुम मुझे वहां ले चलिए, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूंगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है।

ब्राहमण सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।

इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया।

चंद्रभागा कहने लगी, “हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूं। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा।” इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

राजा मुचकुंद, उसकी पुत्री चंद्रभागा और शोभन की यह कथा सुनाकर भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा, “हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्म हत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एका‍दशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं।”

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डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी ज्योतिष शास्त्र की मान्यताओं पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।

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