400 साल पुराना अजीबोगरीब टैलेंट, जानवरों की हड्डियों पर नक्काशी कर बनाते गहने और डेकोरेशन आइटम्स
Lucknow bone carvers: भारत के अलग-अलग राज्यों की अपनी अलग आर्ट और कुछ प्राचीन परंपराएं हैं, जिनमें से कुछ अब भी जीवत हैं। ऐसी ही एक कला को लखनऊ का एक परिवार 400 साल से सजोंए हुए है। दरअसल, यूपी के रहने वाले जलालुद्दीन और उनका परिवार बेहद जटिल सजावट और आभूषण बनाने का काम करता है।
राजाओं के युग में हड्डियों की नक्काशी में होता था हाथी दांत का इस्तेमाल
खास बात ये है कि वे सभी सामान भैंस और अन्य जानवरों की हड्डियों का यूज करके बनाते हैं। इंडियन एक्सप्रेस डॉट कॉम से बातचीत में जलालुद्दीन ने बताया कि वह बीते 50 साल से ये काम करते आ रहे हैं। यह उनका पुश्तैनी काम है, पूर्व में राजाओं के युग में हड्डियों की नक्काशी में हाथी दांत का इस्तेमाल होता था।
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जलालुद्दीन इस काम को करने वाले आखिरी कारीगरों में से एक हैं
लेकिन हाथी दांत पर प्रतिबंध लगने के बाद जलालुद्दीन और उनका परिवार बूचड़खानों से निकली भैंस की हड्डियों का इस्तेमाल करके इस पारंपरिक शिल्प को जिंदा रखे हुए हैं। जलालुद्दीन के अनुसार वह इस काम को करने वाले आखिरी कारीगरों में से हैं। वे हड्डियों से किसी भी तरह का घर का सजावट का सामान और ऑफिस में यूज आने वाली वस्तुओं को बनाते हैं।
मुगल भारत में लाए नक्काशी और मसाले
जलालुद्दीन के अनुसार हड्डियों पर नक्काशी करना सिर्फ़ एक कला नहीं है, बल्कि यह एक पारिवारिक विरासत है जिसे उन्होंने लगभग पांच दशकों से आगे बढ़ाया है। जलालुद्दीन ने कहा कि मुगल भारत में नक्काशी और मसाले लेकर आए थे। उस समय कारीगर अपने शिल्प के लिए हाथी दांत का इस्तेमाल करते थे । जब हाथी दांत पर प्रतिबंध लगा दिया गया, तो कारीगरों ने मांस बेचने के बाद बूचड़खानों से ऊंट या भैंस की हड्डियों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
कला को बचाकर रखना मुश्किल, नहीं मिलता सही दाम
हड्डियों की नक्काशी में काफी मेहनत लगती है, इसमें पहले हड्डियों को काटना, साफ करना और फिर उसे आकार देना शामिल है। हड्डियों से आभूषण बक्से, लैंप, फ्रेम, पेन और पेपरवेट जैसी चीजों को बनाया जाता है। जलालुद्दीन ने बताया कि अब इस कला को बचाकर रखना बड़ा मुश्किल हो गया है। उन्होंने बताया कि कभी-कभी महीनों तक हड्डियां नहीं मिलतीं। इसलिए हम सात से आठ महीने का कच्चा माल जमा कर लेते हैं, जिसकी कीमत करीब 1 लाख रुपए से ज्यादा होती है। उनका कहना था कि अब कला प्रेमी कम ही रह गए हैं, लोग उनके सामान का सही दाम नहीं देते और इसमें मेहनत भी बहुत ज्यादा है। जिससे युवाओं को अब इस काम को सीखने में रुचि नहीं रह गई है।
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