मायावती का नया सियासी पैतरा, सोशल इंजीनियरिंग की जगह PDM होगा प्रयोग
(अशोक कुमार तिवारी, लखनऊ)
Mayawati Politics : लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के सियासी परिणामों ने कई राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति में बदलाव करने पर मजबूर कर दिया है। एक तरफ विपक्षी गठबंधन पीडीए के सहारे नए समीकरण बैठाने में जुटा है तो अब मायावती भी एक नई इंजीनियरिंग पर उतरेंगी। मायावती ने अब पीडीएम यानी पिछड़ा दलित मुसलमान को साधने की कवायद शुरू कर दी है। हाल के दिनों में मायावती ने जिस तरह संगठन के फेरबदल किए वो भी उसी तरफ इशारा कर रहे हैं। यानी मायावती अब अपने पुराने पिछड़ा दलित मुसलमान को जोड़ने की कवायद में जुट गई हैं। आखिर मायावती ने क्यों अपनी रणनीति में ऐसा बदलाव किया और क्या पीडीएम काट होगी पीडीए की? क्या मायावती उत्तर प्रदेश में अपनी खोई सियासी जमीन वापस पा सकेंगी?
उत्तर प्रदेश की सियासत में बहुजन समाज पार्टी और उनकी मुखिया मायावती अपनी अलग तरह की सियासत के लिए जानी जाती हैं। याद होगा कि साल 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने सियासत में नया प्रयोग करके सोशल इंजीनियरिंग के सहारे प्रदेश में सत्ता हासिल की थी। लेकिन अब वही मायावती उसी इंजीनियरिंग से किनारा कर रही हैं और नया प्रयोग पीडीएम करने जा रही हैं। पीडीएम यानी पिछड़ा, दलित और मुसलमान।
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कैसे खोई जमीन पाएंगी मायावती
हाल के लोकसभा चुनाव में जिस तरह सपा और कांग्रेस ने पीडीए यानी पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक को साथ जोड़ा और खोई सियासी जमीन दोबारा हासिल की। अब वे लोकसभा चुनाव में सरकार न बनाने के बाद भी उत्साह से अगले चुनाव में जुटे हैं, लेकिन दलितों की सबसे बड़ी नेता मायावती लोकसभा चुनाव 2024 में अपना खाता तक नहीं खोल पाईं। अब मायावती और उनके रणनीतिकार नए प्रयोग पर फोकस कर रहे हैं। यानी पार्टी से दलितो, पिछड़ों और मुसलमानों को जोड़ना है। हाल में जिस तरह से लोकसभा चुनाव हार के बाद मायावती ने पार्टी संगठन में बदलाव किया और संगठन में अगड़ों को छोड़कर पिछड़े, दलित मुसलमान वर्ग के लोगों को जगह दी गई। वो उनके नए प्रयोग की तरफ इशारा कर रहे हैं।
क्या है सोशल इंजीनियरिंग?
दरअसल, बसपा 2007 का विधानसभा चुनाव सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले पर लड़ी थी। इस चुनाव में मायावती ने सर्वाधिक 139 सवर्णों को टिकट दिया था। खास बात ये है कि इनमें 86 ब्राह्मण वर्ग से थे। कुल 41 ब्राह्मण बसपा के टिकट पर चुनाव जीते थे, लेकिन इसके बाद किसी भी चुनाव में बसपा का कोई भी फार्मूला फिट नहीं बैठा। यानी 2012, 2017, 2022, 2024 चुनावों में बसपा की स्थिति गिरती चली गई। हालांकि साल 2019 में सपा गठबंधन के तहत बसपा लोकसभा चुनाव में 10 सीट जीती थी, लेकिन 2024 में फिर जीरो हो गई। अब मायावती पीडीएम पर फोकस कर रही है।
क्या कहते हैं सियासी दल?
उत्तर प्रदेश बीजेपी के प्रवक्ता जुगुल किशोर का कहना है कि शुरुआत में बसपा ने 84% की राजनीति शुरू की थी। यानी दलित पिछड़े मुसलमान को साथ लेकर सियासत करने की, लेकिन बाद में वो राजनीति सर्वसमाज में बदल गया। अब दलित वोट बैंक मायावती से छिटक गया है। अब मायावती किसी के साथ नहीं केवल पैसे के साथ हैं। मायावती के पीडीएम फॉर्मूले पर कांग्रेस प्रवक्ता सचिन रावत का कहना है कि मायावती ने पिछले कुछ दशकों में दलितों मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया। अब जनता मायावती को नकार चुकी है। वहीं, सपा प्रवक्ता मनोज यादव का कहना है कि मायावती चाहे पीडीएम कर लें या कुछ और बीजेपी को वही हटा पाएगा जो लड़ेगा। सड़क पर उतरना होगा। ऐसे काम नहीं चलेगा।
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क्या कहते हैं राजनीति के जानकार?
हालांकि, सूबे की सियासत के जानकर और वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी मानते हैं कि ये दौर मायावती और बसपा के लिए संक्रमण काल है। लोकसभा 2024 के पहले 2014 में भी मायावती की शून्य सीट आई थी, उस वक्त भी खाता नहीं खुला था। लेकिन चिंता इस बात की है कि उनका पारंपरिक दलित वोटर्स उनसे दूर हो गया है। हेमंत तिवारी कहते हैं कि मायावती एक अनुभवी नेता हैं और 4 बार प्रदेश की सीएम रह चुकी हैं, लेकिन पीडीएम बनाना बहुत आसान नहीं होगा।