उत्तराखंड का परंपरागत मौण मेला; पत्नी समेत हिस्सा लेते थे टिहरी नरेश
Algad River Fishing Festival: (अमित रतूड़ी, मसूरी) उत्तराखंड अपने रीति रिवाजों और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। आज भी यहां कई ऐसी परंपराएं जिंदा हैं, इनमें से एक है मौण मेला। इस मेले के तहत साल में एक बार अगलाड़ नदी में मछलियां पकड़ने का ऐतिहासिक त्योहार मनाया जाता है। पहाड़ों की रानी मसूरी के नजदीक जौनपुर रेंज में उत्तराखंड का सांस्कृतिक धरोहर मौण मेला शनिवार को आयोजित किया गया था। मौण मेले को लेकर ग्रामीणों में खासा उत्साह दिखा। ग्रामीण यहां मछलियों को पकड़ने के लिए अगलाड़ नदी में उतरे। दरअसल मानसून की शुरुआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछलियों को मारने के लिए मौण मेला मनाया जाता है। मौण को मौणकोट नामक स्थान से अगलाड़ नदी के पानी में मिलाया जाता है।
हजारों लोग एकसाथ उतरे नदी में
इसके बाद हजारों की संख्या में बच्चे, युवा और वृद्ध नदी की धारा के साथ मछलियां पकड़ना शुरू कर देते हैं। यह सिलसिला लगभग चार किलोमीटर तक चलता है, जो नदी के मुहाने पर जाकर खत्म होता है। नदी में टिमरू के छाल से बनाया पाउडर डाला जाता है। जिससे मछलियां कुछ देर के लिए बेहोश हो जाती हैं। इसके बाद इन्हें पकड़ा जाता है। शनिवार को हजारों की संख्या में ग्रामीण मछली पकड़ने के अपने पारंपरिक औजारों के साथ नदी में उतरे। इनमें बच्चे, युवा और बुजुर्ग भी शामिल हुए। ग्रामीण मछलियों को अपने कुण्डियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से पकड़ते नजर आए। जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पातीं, वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं।
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इस बार ’प्रसिद्ध राजमौण’ में मौण या टिमूर पाउडर निकालने की बारी खैराड़, मरोड़, नैनगांव, भुटगांव, मुनोग, मातली और कैंथ के ग्रामीणों की थी। इस मौके पर ढोल नगाड़ों की थाप पर ग्रामीणों ने लोकनृत्य भी किया। सुरेंद्र सिंह कैन्तुरा ने बताया कि मेले में सैकड़ों किलो मछलियां पकड़ी जाती हैं। जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं। घर में बनाकर मेहमानों को परोसते हैं। वहीं, मेले में पारंपरिक लोक नृत्य भी किया जाता है। मेले में विदेशी पर्यटक भी पहुंचते हैं। यह भारत का अलग अनूठा मेला है,जिसका उद्देश्य नदी और पर्यावरण का संरक्षण करना होता है। इसका उद्देश्य नदी की सफाई करना होता है,ताकि मछलियों को प्रजनन के लिए साफ पानी मिले।
टिमरू का पाउडर पानी के नुकसानदेह नहीं
जल वैज्ञानिकों का कहना है कि टिमरू का पाउडर जल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है। इससे कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती हैं। जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पातीं, वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं। हजारों की संख्या में जब लोग नदी की धारा में चलते हैं तो नदी के तल में जमी हुई काई और गंदगी साफ होकर पानी में बह जाती है और मौण मेला के बाद नदी बिल्कुल साफ नजर आती है। उन्होंने बताया कि इस ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ 1866 में तत्कालीन टिहरी नरेश ने किया था। तब से जौनपुर में हर साल इस मेले का आयोजन किया जा रहा है। क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश स्वयं अपनी रानी के साथ आते थे। मौण मेले में सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे। लेकिन सामंतशाही के पतन के बाद सुरक्षा का जिम्मा खुद ग्रामीणों ने उठा लिया।
स्थानीय लोगों ने बताया कि जौनपुर, जौनसार और रंवाई इलाकों का जिक्र आते ही मानस पटल पर एक सांस्कृतिक छवि उभर आती है। स्थानीय निवासी जब्बर सिंह वर्मा ने बताया कि यूं तो इन इलाकों के लोगों में भी अब परंपराओं को निभाने के लिए पहले जैसी गंभीरता नहीं है, लेकिन समूचे उत्तराखंड पर नजर डालें तो अन्य जनपदों की तुलना में आज भी इन इलाकों में परंपराएं जीवित हैं। पलायन और बेरोजगारी का दंश झेल रहे उत्तराखंड के लोग अब रोजगार की खोज में मैदानी इलाकों की ओर रुख कर रहे हैं। लेकिन रवांई जौनपुर एवं जौनसार बावर के लोग अब भी रोटी के संघर्ष के साथ-साथ परंपराओं को जीवित रखना नहीं भूले। बुजुर्गों के जरिये उन तक पहुंची परंपराओं को वह अगली पीढ़ी तक ले जाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहे हैं।