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Indian's Health And Fitness: जब खुद नहीं रहेंगे फिट तो विकसित कैसे बनेगा भारत?

Indian Citizens Health Fitness Habits: प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखा है, लेकिन यह सपना स्वस्थ नागरिकों से पूरा होगा। अगर लोग बीमार होंगे तो किसी भी देश का विकास संभव नहीं, वहीं लोगों के अनफिट होने का कारण उनके खान-पान की आदतें हैं, जो आज 21वीं सदी में इतनी बदल चुकी हैं कि बीमार होने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।
01:13 PM Dec 31, 2024 IST | Khushbu Goyal
indian s health and fitness  जब खुद नहीं रहेंगे फिट तो विकसित कैसे बनेगा भारत
Bharat Ek Soch

Bharat Ek Soch: किसी भी मुल्क की सबसे बड़ी संपत्ति उसके सेहतमंद नागरिक होते हैं। कोई भी मुल्क अपने स्वस्थ्य नागरिकों की बदौलत ही तरक्की करता है। आज की तारीख में भारत में दुनिया की सबसे अधिक युवा आबादी रहती है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखा है। ऐसे में 2024 को अलविदा कहने और 2025 की स्वागत की तैयारियों के बीच इस बात पर मंथन जरूरी है कि विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल करने में सबसे बड़ा रोड़ा क्या हो सकता है? वो है- हमारी बड़ी आबादी की सेहत। इंटरनेट ने पूरी दुनिया के रहन-सहन और खान-पान के बीच गजब का रिश्ता जोड़ा है। पिछले 15-20 साल में सबसे अधिक हमारे खान-पान की आदतें बदली हैं।

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स्मार्टफोन संस्कार बना रहे मानसिक रूप से बीमार

अगर यह कहा जाए कि एक तरह से खान-पान का Globalization हुआ है तो गलत नहीं होगा। बिहार के सासाराम से लेकर अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को तक बर्गर या पिज्जा के जायके में कोई फर्क नहीं। चेन्नई-बेंगलुरु जैसा डोसा, वड़ा और इडली आसानी से उत्तर भारत के ज्यादातर शहरों में आसानी से मिल जाएगा। छोटे बच्चों का चॉकलेट, चिप्स और कोल्ड ड्रिंक को लेकर सम्मोहन किसी से छिपा नहीं है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए पूरी दुनिया से जुड़ने के चक्कर में लोग अपनों से कटते जा रहे हैं। नए दौर का स्मार्टफोन संस्कार हमें मानसिक रूप से बीमार बना रहा है, सुस्त और आलसी बना रहा है। ऐसे में आज आपको बताते हैं कि 2047 तक विकसित भारत बनाने के लिए हमें किस तरह के सेहत संस्कार की जरूरत है? गंभीर बीमारियों से बचने के लिए अपने खान-पान से लेकर दूसरी आदतों में कितना सुधार करना पड़ेगा? डिजिटल गैजेट्स के इस्तेमाल को लेकर किस तरह की लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी?

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दिल्ली का AQI सिगरेट के जहर जितना खतरनाक

अकसर कहा जाता है कि अगर धन गया तो कुछ नहीं, अच्छा साथी गया तो बड़ा नुकसान हुआ और अगर सेहत गई तो सब गया। मेडिकल साइंस में तरक्की और हेल्थ सर्विसेज तक पहुंच बढ़ने से लोगों की औसत उम्र तो बढ़ी है, लेकिन 25-30 साल की उम्र के युवाओं को भी हार्टअटैक, कैंसर, डायबिटीज और बीपी जैसी गंभीर बीमारियां हो रही हैं। ज्यादातर लोग 40 की उम्र में ही 65 जितने दिखने लगे हैं। उनके शरीर के अंग भी सुस्त पड़ते जा रहे हैं। अगर आपने सिगरेट के पैकेट को कभी ध्यान से देखा हो तो उस पर साफ-साफ चेतावनी लिखी जाती है कि सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है, लेकिन अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो सर्दियों में अक्सर यहां का Air Quality Index यानी AQI खतरनाक स्तर पर रहता है। मान लीजिए आप सिगरेट नहीं पीते, लेकिन आपके शहर का AQI 200 से 300 के बीच है तो जाने अनजाने 6 से 10 सिगरेट के बराबर जहर आपके शरीर में जा रहा है। इसी तरह अगर AQI 400 से 450 के बीच है तो इसका मतलब 25 से 30 सिगरेट के बराबर जहर अपके शरीर में जा रहा है। प्रदूषण की वजह से बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक गंभीर बीमारियों का शिकार बन रहे हैं। ऐसे में हमें विकसित भारत बनाने के लिए प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से आजादी का रास्ता निकालना होगा।

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खाने की बिगड़ती आदतें सेहत के लिए हानिकारक

एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट एट द यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में रहने वाले लोगों की उम्र प्रदूषण की वजह से 11.9 साल कम हो रही है। अगर इसी तरह हमारे देश के छोटे-छोटे शहरों में भी प्रदूषण बढ़ता रहा और इसे कम करने के ठोस कदम नहीं उठाए गए तो हमारे देश की बड़ी आबादी कई गंभीर बीमारियों की चपेट में होगी। ऐसे में परिवार की जमा-पूंजी का बड़ा हिस्सा बीमार सदस्यों के इलाज और अस्पताल का बिल चुकाने में खर्च करना पड़ सकता है। इसी तरह सुबह से शाम तक हम जो कुछ खा रहे हैं, उसमें भी धीमा जहर है, जिसे खुली आंखों से देखना मुश्किल है। दिनभर में हम जितनी बार दूध वाली चाय या कॉफी पीते हैं, जितनी बात मिठाइयां या नमकीन खाते हैं। उसके जरिए भी सेहत को बट्टा लगाने वाली चीजें शरीर में धीरे-धीरे दाखिल हो रही हैं। वो लगातार इंसान का वजन बढ़ा रही हैं और साथ ही उम्र घटा रही हैं।

इस समस्या को 2 तरह से देखा जा सकता है। पहला खानपान की आदतों में बदलाव और दूसरा बाहरी-भीतरी मिलावट। सबसे पहले बात करते हैं, खानपान के संस्कारों में आए बदलावों की। ज्यादातर परिवारों में जंक फूड के इस्तेमाल को स्टेट्स सिंबल की तरह लिया जाता है। बच्चे बर्गर, पिज़्ज़ा, पास्ता, नूडल्स, हॉट डॉग बहुत चाव से खाते हैं। उनके लंच बॉक्स में ज्यादातर इसी तरह के जंक फूड रहते हैं। स्कूल से लौटने के बाद भी बच्चे चिप्स, नमकीन, आइसक्रिम या कोल्ड ड्रिंक में अपनी खुशियां तलाशते हैं, लेकिन आपको शायद अंदाजा नहीं होगा कि जंक फूड आपके बच्चों के शरीर में बीमारियों के लिए किस तरह के दरवाजे-खिड़कियां बना रहा होता है?

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फास्ट और प्रोसेस्ड फूड भी सेहत के लिए जहर

फास्ट फूड और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में चीनी, नमक, अनहेल्दी फैट और प्रिजर्वेटिव्स की मात्रा अधिक होती है, जो कम उम्र में बल्ड प्रेशर, डायबिटीज, दिल की बीमारी और मोटापे को बढ़ाती हैं। सोशल मीडिया ने बच्चों को भी खाने-पीने के मामले में प्रयोगधर्मी बना दिया है। ढाबा संस्कृति और बाहर खाने-पीने का चलन तेजी से बढ़ा है। जरा याद कीजिए, पहले दूध के साथ नमक खाने से मना किया जाता था, लेकिन अब दूध से बनी पनीर की सब्जी, पनीर पकौड़ा आम बात है। दूध और नमक को दूर रखने की जगह दोनों में मेल कराने के लिए किचन में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं।

पहले सूरज ढलते ही लोग रात का खाना खा लेते थे और समय से सो जाते थे। सूर्योदय से पहले जागना लोगों की जिंदगी की दिनचर्या हुआ करती थी, लेकिन पूरी दुनिया में तेजी से बदले वर्क कल्चर में रात और दिन के बीच बहुत हद तक फर्क मिट चुका है। लोग कभी भी और कुछ भी खा रहे हैं। पैक्ड और प्रोसेस्ड खाने-पीने की चीजों की डिमांड दिन दोगुनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है, जो मिनटों में तैयार हो जाती हैं। ऐसे में खान-पान की नई आदतें और तौर-तरीका हमारी बड़ी आबादी को बीमार, बहुत बीमार बनाता जा रहा है। विकसित भारत के लिए जरूरी है कि हमारी आबादी फीट रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम क्या खाएं, कब खाएं और कैसे खाएं?

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2 खाने के बीच कितना अंतर फायदेमंद और नुकसानदायक

पूरी दुनिया में सेहत से जुड़े मोर्चों पर काम करने वाले ज्यादातर वैज्ञानिक इस बात पर जोर देते हैं कि कब नहीं खाना चाहिए? इस बात पर कम चर्चा होती है कि कितनी बार खाना चाहिए? इसी तरह इंटरमिटेंट फास्टिंग की बात भी जोर-शोर से हो रही है कि 2 खाने के बीच कितना अंतर रखा जाए? बेहतर सेहत के लिए टू प्लेट मील के विचार को भी तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है, जिसमें एक प्लेट में इंसान को उसके शरीर के वजन का एक फीसदी सलाद के रूप में खाने की सलाह दी जाती। इसके तुरंत बाद भूख के मुताबिक रोटी-चावल, सब्जी-दाल खाने की बात कही जाती है। 2 खाने के बीच लंबा अंतर रखने के फायदे और नुकसान को लेकर भी बड़ी बहस छिड़ी है। कोई नाश्ते की थाली बड़ी तो डिनर की खाली छोटी रखने की वकालत करता है।

दुनिया की जाने-माने फूड हिस्टोरियन सेरेन चारिंगटन हॉलिन्स के मुताबिक, सुबह के नाश्ते की शुरुआत इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद हुई। सुबह कारखानों में जाने से पहले मजदूर एक या 2 रोटी खाते थे, जो बहुत सादा होता था। इसे बाद में नाश्ते का नाम दिया गया। 1950 के दशक तक नाश्ता रइसों की चीज बन गया। इसमें स्प्राउट्स, टोस्ट, जैम और फ्रूट्स जुड़ गए। वक्त और जेब के मुताबिक, सभी अपने जायके और जरूरत के हिसाब से नाश्ते की प्लेट बड़ा करते गए, लेकिन आज की तारीख में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम जितनी कैलोरी दिन-भर में लेते हैं, क्या वो बर्न भी कर रहे हैं? कंप्यूटर, स्मार्टफोन और तकनीक की वजह से हमारा शारीरिक काम दिनों-दिन कम होता जा रहा है? ऐसे में विकसित भारत के लिए हमें अपने डेली रूटीन में फिजिकल वर्क को किस तरह से जोड़ना होगा, इस पर गंभीरता से मंथन की जरूरत है।

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विकसित भारत में योगदान देने के लिए फिटनेस जरूरी

भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश यह 5 तत्व शरीर, धरती और पूरी सृष्टि के आधार हैं। यही 5 तत्व इंसानी सभ्यता को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। स्वस्थ शरीर में बेहतर दिमाग की सोच को आगे बढ़ाते रहे हैं, लेकिन तरक्की की अंधी दौड़ में हवा-पानी, मिट्टी तक सब प्रदूषित हो चुके हैं, जो हमारी जिंदगी के दिन लगातार कम कर रहे हैं। भोजन की थाली में जो खा रहे हैं, जितना खा रहे हैं, जिस तरह से खा रहे हैं, वो हमारी सेहत बिगाड़ रहा है या बना रहा है...इसे भी उम्र चक्र के हिसाब से अलग-अलग लेंस से देखने की कोशिश होती है। अब सवाल उठता है कि जब हवा खराब है, भोजन में सेहत बिगाड़ने वाले रसायन घुले-मिले हैं। दूध में मिलावट है...फल-सब्जियों में जहर है तो इंसान जाए कहां और खाए क्या?

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विकास की रफ्तार रिवर्स करना असंभव है...लेकिन इंसान की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए विकास जरूरी है न कि इंसान के शरीर को कमजोर और बीमार बनाने के लिए। ऐसे में हमें विकसित भारत में दमदार भूमिका निभाने के लिए खुद को फिट रखना जरूरी है। इसके लिए खान-पान से लेकर रहन-सहन तक के संस्कार में बदलाव करना होगा, संयम का रास्ता चुनना होगा। अपनी दिनचर्या में शारीरिक श्रम को शामिल करना होगा। अगर ऐसा नहीं करते तो जिंदगी के दिन कम तो होंगे ही। कम उम्र में ही बुर्जुगों जैसी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाएंगे। ऐसे में पूरी सृष्टि का आधार पंचभूतों को अपवित्र होने से बचाना आज की सबसे बड़ी चुनौती है तो दूसरी ओर हमें अपने भीतर खुद ऐसे संस्कार विकसित करने होंगे, जिससे हमारी जिंदगी के दिन लंबे हों, खुशहाल हों, बिना दवाई और अस्पताल के चक्कर काटने वाले हों।

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